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तत्त्व : आचार: कथानुयोग ]
लेखक की लेखिनी से
xx vii प्रकाश में बदल जाता है । अस्तु, मैं तो अपने चारों ओर अब प्रकाश ही प्रकाश अनुभव कर रहा हूँ ।
प्रस्तुत तीसरे खण्ड के कथानुयोग प्रकरण में मुख्यतः जैन और बौद्ध दो ही परम्पराओं में समान रूप से उपलब्ध प्रकरण व कथानक ही समीक्षा के लिए गए हैं, साथसाथ भगवान् राम व वासुदेव कृष्ण आदि मान्य प्रसंग जो वैदिक परम्परा से भी सम्बन्धित है, उन्हें भी समीक्षार्थं अधिगृहित कर लिए गए हैं । इससे सर्वसाधारण व विद्वज्जन उक्त प्रसंगों के त्रिधा कथा प्रसंगों से भी परिचित हो सकेंगे और जान सकेंगे कि उक्त प्रसंगों को लेकर तीनों परम्पराओं में कितना भेद है और कितना अभेद है । समीक्षा का विषय तो वह सबके लिए होगा ही ।
प्रस्तुत तृतीय खण्ड के गुरुत्तर कार्य में अनेक व्यक्ति योगभूत बने हैं, उन्हें याद करना व आभारान्वित करना मेरी सदाशयता होगी ।
समान प्रकरणों व समान आख्यानों की गवेषणा में स्व० मुनि महेन्द्रकुमारजी 'प्रथम' व मुनि महेन्द्रकुमार जी 'द्वितीय' का मूलभूत सहयोग रहा।
इतने विशाल ग्रन्थ का प्रकाशन भार सर्वथा अपने ऊपर लेकर कॉन्सेप्ट पब्लिशि कम्पनी के संचालक श्री नौरगरायजी मित्तल तथा उनके सुपुत्रों ने मुझे आभारान्वित किया है । उनके इस सेवा कार्य के उपलक्ष में उनके समग्र परिवार के लिए शतशः मंगल कामनाएं मेरे हृदय से स्वतः प्रस्फुटित हो रही हैं ।
मद्रास विश्वविद्यालय के जैन दर्शन विभाग के अध्यक्ष डॉ० टी० जी० कलघटगी ने प्रस्तुत ग्रन्थ की भूमिका लिखकर उसकी गरिमा बढ़ाई है । भूमिका स्वयं बोलती है कि जैन और बौद्ध दोनों परम्पराओ के मूल को उन्होंने सूक्ष्मता से पकड़ा है ।
विद्वद्वर उपाध्याय श्री विशाल मुनिजी ने ग्रन्थ का आद्योपान्त पारायण किया, उसका यथार्थ अंकन तथा उस पर 'एक अवलोकन' लिखा जो स्वयं में उनकी विज्ञता का परिचायक है । यह उनकी प्रमोदभावना का सूचक भी है।
डॉ० छगनलालजी शास्त्री बहुविध विषयों के पारंगत विद्वान् हैं । अपनी प्रखर प्रतिभा से स्वर्ण पदक भी उन्होंने प्राप्त किया है। उनके द्वारा ग्रन्थ का सम्पादन होना स्वयं में एक गौरव है ।
मेरे सारे कार्यों की धूरी अभी ज्योतिर्विद मुनि मानमलजी हैं। मैं नहीं समझता था, सम्बन्धित सभी आयामों का दायित्व वे अकेले ही निभा लेंगे, पर उन्होंने वैसा कर दिखाया और करते जा रहे हैं । ग्रन्थ-निर्माण, भवन निर्माण, जन-सम्पर्क, शीर्षस्थ समारोह आदि लगभग सभी कार्य किसी-न-किसी सात्त्विक रूप में उनसे तो जुड़े ही हैं । मार्ग-दर्शन के अतिरिक्त वे मेरे तक कोई भी कार्य भार नहीं आने देते । अस्तु, यही मुख्य हेतु है कि मैं प्रस्तुत खण्ड को भी आसानी से पूरा कर पाया ।
प्रूफ ( Proof) संशोधन व ग्रन्थ की साज-सज्जा का कार्य श्री रामचन्द्र सारस्वत ने कुशलतापूर्वक किया ही है ।
मुझे आशा है, विद्वद्वर्ग ने मेरे पिछले दो खण्डों का जिस प्रकार यथार्थ मूल्यांकन किया, इस ती परे खण्ड का भी उसी रूप में मूल्यांकन करेंगे ।
- मुनि नगराज
२४ सितम्बर, १६६०
( ७४वां जन्म दिवस ) नई दिल्ली
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