________________
तत्त्व : आचार : कथानुयोग ] कथानुयोग-चतुर रोहक : महा उम्मग्ग जातक २१५ शिला अपनी जगह से जरा भी हटाए बिना, उठाए बिना मंडप के छत के रूप में उपयोग में आ गई।
नट उज्जयिनी गये। राजा की सेवा में उपस्थित हुए। राजा से निवेदन किया"आपकी आज्ञा का पालन किया जा चुका है। राजा मंडप देखने गया। उसने मंडप के निर्माण का विधि-क्रम सुना। रोहक की सूझ से बड़ा प्रसन्न एवं प्रभावित हुआ। वापस उज्जयिनी लौट आया।
परिपुष्ट मेंढा
कुछ समय बाद राजा ने एक परिपुष्ट मेंढ़ा रोहक के ग्राम में भेजा । साथ-ही-साथ ग्रामवासी नटों को यह संदेश भेजा कि पन्द्रह दिन तक मेंढ़े को यहाँ रखो। ऐसी व्यवस्था रखो कि पन्द्रह दिन में मेंढ़े का वजन न कम हो, न अधिक हो। जितना इस समय है, उतना ही रहे। बड़ी विचित्र बात थी, बड़ी कठिनाई भो, यदि मेंढ़ा हर रोज कुछ खायेगा, पीयेगा तो निश्चय ही उसका वजन कुछ न कुछ बढ़ेगा ही। यदि मेंढ़े को खाना-पीना नहीं दिया जायेगा तो यह सुनिश्चित है, इसका वजन काफ़ी कम हो जायेगा।
जिनमें बुद्धि नहीं होती या जो सामान्य बुद्धि-युक्त होते हैं, उनके लिए छोटे-छोटे साधारण कार्य भी बड़े कठिन हो जाते हैं, किन्तु, बुद्धिमानों के लिए वे कार्य, जिन्हें दुःसाध्य और कठिन कहा जाता है, स्वभावत: सुसाध्य तथा सुलभ हो जाते हैं। रोहक के लिए प्रस्तुत कार्य वास्तव में कोई दुष्कर कार्य नहीं था।
रोहक ने मेंढ़े को एक खूटे से बँधवा दिया। मेंढ़े के सामने खाने के लिए हर रोज हरी-हरी घास डलवाने लगा। मेंढ़ा हरी घास खाता रहता, इस कारण उसका वजन कम नहीं होता था तथा सामने भेड़िया बँधा था, उसके डर के कारण उसका वजन ज्यादा नहीं होता था-बढ़ता नहीं था। मेंढ़े के वजन का समीकरण, सन्तुलन बनाये रखने हेतु भोजन तथा भय-दोनों उसके सामने रखे गये। पन्द्रह दिन तक यह क्रम चलता गया। वह मेंढ़ा वजन में न घटा, न बढ़ा।
दी गई अवधि व्यतीत हो जाने पर ग्रामवासी मेंढ़े को साथ लिये राजा के पास पहुँचे। राजा को मेंढ़ा सम्भलाया । राजा ने मेंढ़े को वजन में ज्यों-का-त्यों पाया, उनसे मेंढ़े को रखे जाने का प्रकार भी सुना, जो रोहक ने उन्हें निर्देशित किया था । राजा बहुत परितुष्ट हुआ और उसने मन-ही-मन अनुभव किया कि उसे ऐसे ही प्रतिमाशील अमात्य की आवश्यकता है।
एकाको मुर्गे को द्वन्द्व-युद्ध का शिक्षण
राजा रोहक की कुछ और परीक्षा करना चाहता था। राजा ने नटों के ग्राम में एक मुर्गा भेजा। साथ में यह संदेश भेजा कि इस मुर्गे को बिलकुल एकाकी रखा जाए। कोई भी मुर्गा या मुर्गी उसके पास न रहे। ऐसी स्थिति में रखते हुए इस मुर्गे को द्वन्द्व-युद्ध करने का शिक्षण प्राप्त कराया जाए । वह लड़ना सीख जाए, अच्छा लड़ाकू बन जाए।
गाँव के नटों के लिए यह एक विषम समस्या थी। वे उदास हो गये । यह देखकर रोहक ने कहा- "मुर्गा मुझे दे दो। मैं इसे एकाकी रखते हुए भी लडाकू बना दूंगा। रोहक ने मुर्गे को कुछ दिन अपने पास रखा। फिर उसने उसे नटों को सौंपते हुए कहा कि अब खूब अच्छी
Jain Education International 2010_05
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org