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________________ तत्त्व : आचार : कथानुयोग ] श्रेणिक द्वारा चाण्डाल से विद्या-ग्रहण : छबक जातक २०९ किया, राजा के बगीचे से पका हुआ आम लाऊंगा, और पत्नी को परितुष्ट करूंगा, उसका दोहद शान्त होगा। वह रात्रि के समय बगीचे में पहुँचा, आम के पेड़ पर चढ़ा। पके हुए आम की खोज में एक डाली से दूसरी डाली पर घूमता रहा। यों करते-करते रात्रि व्यतीत हो गई । उसने देखा, उजाला हो गया है। यदि वृक्ष पर से उतर कर जाऊंगा तो मुझे लोग देख लेंगे, चोर समझेंगे और पकड़ लेंगे; इसलिए अच्छा यही होगा, मैं दिन भर यहीं छिपा रहूँ, रात होने पर वापस अपने घर चला जाऊंगा। यह सोचकर वह पेड़ पर सघन पत्तों में छिपा रहा। वाराणसी-नरेश द्वारा वेद-मन्त्रों का अध्ययनोपक्रम ___ तभी की बात है, वाराणसी का राजा वेद-मन्त्रों का अध्ययन करता था। बगीचे में वह आम के पेड़ की छाया में खुद उच्च आसन पर आसीन होता, पुरोहित को नीचे आसन पर बिठाता, मंत्रों का शिक्षण होता। उस दिन भी वैसा ही दृश्य उपस्थित हुआ। बोधिसत्त्व द्वारा उद्बोधन जैसा पूर्व-सूचित है, बोधिसत्त्व चाण्डाल के रूप में थे। पेड़ पर बैठे थे। सोचने लगे--- यह राजा धर्म-परंपरानुगामी नहीं है, अधार्मिक है, जो स्वयं उच्च आसन पर बैठता है, शिक्षक को नीचे बिठाता है, मंत्र सीखता है, यह पुरोहित भी धर्म-परंपरानुगत नहीं है, अधामिक है, जो स्वयं नीचे आसन पर संस्थित हो, मंत्र-पाठ देता है। मैं भी धर्मचर्या से पराङ्मुख हूँ, अधार्मिक हूँ, जो स्त्री के मोह के कारण अपने जीवन की चिन्ता न करता हुआ राजा के बगीचे से छिपकर आम ले जाना चाहता हूँ। वह वृक्ष से नीचे उतरने लगा। वृक्ष की एक डाली नीचे तक लटक रही थी। उसके सहारे नीचे आकर वह राजा तथा पुरोहित दोनों के बीच में आ खड़ा हुआ । वह बोला"राजन् ! मैं नष्ट हुआ। तुम मूर्ख हो । पुरोहित मृत हैं।" राजा ने पूछा-"ऐसा क्यों कह रहे हो?" इस पर वह चांडाल बोला- "जिन कर्मों की ओर मैं इंगित कर रहा हूँ, वे सब नीच कर्म हैं। मैं स्त्री के लिए चोर-कर्म में प्रवृत्त हआ। तुम दोनों ही धर्म का अनुसरण नहीं कर रहे हो-जो मंत्र का शिक्षण देता है वह भी और मंत्र का शिक्षण लेता है वह भी। दोनों धर्म से च्युत हो । दोनों के बैठने के ढंग से यह स्वयं स्पष्ट है।"१ हीन-चिन्तन इस पर मंत्र सिखाने वाला ब्राह्मण बोला-"इस राजा से मुझे बहुत अच्छा पका हुआ मांस तथा शालिधान-उत्तम जातीय चावल का भोजन खाने को मिलता है। यही कारण है कि मैं ऋषि-सेवित धर्म-शिक्षक ऊंचा बैठे, शैक्ष- शिष्य नीचा बैठे का परिपालन नहीं करता।"२ १. सव्वं इदं चरिमवंत, उभो धम्म न पस्सरे, उभो पकतिया चुता, यो चायं मन्तञ्झायति । यो च मन्तं अधीयति ॥ २. सालीन भोजनं भुजे, सुचिं मंसूपसेवनं । तस्मा एतं न सेवामि, धम्म इसिहि सेवितं ।। Jain Education International 2010_05 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002623
Book TitleAgam aur Tripitak Ek Anushilan Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNagrajmuni
PublisherConcept Publishing Company
Publication Year1991
Total Pages858
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Philosophy, Conduct, & Story
File Size17 MB
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