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आगम और त्रिपिटक : एक अनुशीलन
[खण्ड :३
३. श्रेणिक द्वारा चाण्डाल से विद्या-ग्रहणः
छबक जातक
विद्या विनय से लभ्य है । अविनयी व्यक्ति कहने को चाहे कितना ही बड़ा हो, विद्या-लाभ नहीं कर सकता, यह सर्वविदित तथ्य है। भारतीय संस्कृति में विनय का बड़ा महत्त्व है। विद्याभ्यासी के लिए तो वह सर्वथा अनिवार्य है।
दशवकालिक चूणि, वृहत्कल्प भाष्य एवं उपदेशपद आदि में राजा श्रेणिक से सम्बद्ध एक कथानक है । राजा ने एक चाण्डाल से अवनामिनी तथा उन्नामिनी विद्याएँ सीखने का प्रयत्न किया। राजा होने का गर्वोन्नत भाव उसमें व्याप्त था। अत: अभ्यास-काल में वह स्वयं उच्चासन पर आसीन होता, विद्यादाता गुरु को-चाण्डाल को नीचे बिठाता, विद्या गृहीत नहीं होती। अपने मेधावी पुत्र महामात्य अभयकुमार द्वारा झुकाये जाने पर ज्योंही राजा नीचे बैठने लगा, चाण्डाल को ऊपर बिठाने लगा, विद्या अधिगत हो गई।
इसी प्रकार का वर्णन छबक जातक में है। वाराणसी-नरेश वेद-मन्त्र सीखने का अभ्यास करता था। स्वयं ऊंचा बैठता, मन्त्रदाता पुरोहित को नीचे बिठाता। वेद-मन्त्र स्वायत्त नहीं होते । बोधिसत्त्व द्वारा उद्बोधित होकर जब उसने विनयपूर्ण व्यवहार स्वीकार किया, स्वयं नीचे बैठने लगा, पुरोहित को ऊपर बिठाने लगा, वेद-मन्त्र प्राप्त कर सका।
दोनों कथाओं के धटना-प्रसंगों में काफ़ी साम्य है, दोनों में चाण्डाल-पत्नी के दोहद एवं आमों की चोरी की चर्चा है। जैन कथा में जहाँ विद्या-दाता चाण्डाल है, बौद्ध कथा में चाण्डाल (चाण्डाल कुलोत्पन्न बोधिसत्त्व) उद्बोध-दाता है।
सम्बद्ध, संलग्न जैन कथाक्रम कुछ और विस्तृत है, जो बड़ा रोचक है। मूलतः जीवन-व्यवहार में विनयशील होने की प्रेरणा दोनों में ही बड़ी सरल एवं सहज रीति से उपन्यस्त है।
श्रेणिक द्वारा चाण्डाल से विद्या-ग्रहण मगध-नरेश श्रेणिक : एक स्तंभी प्रासाद
मगध में राजगह नामक नगर था । श्रेणिक नामक राजा था। बड़ा प्रतापशाली था। एक बार उसकी रानी ने उससे कहा- "मेरे लिए एक ऐसा महल बनवाइए, जो एक खंभे पर टिका हो।"
राजा ने कर्म-कुशल वर्ध कि बुलाये। उन्हें महारानी की आकांक्षा से अवगत कराया। वर्धकि वन में गये। उन्होंने वहाँ एक बहुत बड़ा वृक्ष देखा, जो उत्तम लक्षणों से युक्त था। उन्होंने उसे धूप दिया और कहा- 'भूत, प्रेत आदि जो भी दिव्य आत्माएँ इस वृक्ष को अधिकृत किये हों, वे दर्शन दें। हम, जो वृक्ष काटने हेतु यहाँ आये हैं, इसे न काटें।" यह कहकर वे उस दिन वापस अपने-अपने घर लौट आये।
एक व्यन्तर देव ने उस महावृक्ष को अधिकृत कर रखा था। उसने रात के समय महाराज श्रेणिक के पुत्र एवं साथ-ही-साथ अमात्य अभयकुमार को स्वप्न में दर्शन दिया। उसने अभय कुमार से कहा- "आपके यहाँ से कुछ बढ़ई वन में आये। उन्हें एक स्तंभ पर टिका महल बनाने के लिए सुदृढ़, सुविशाल, सुन्दर स्तंभ चाहिए। तदर्थ वे मेरे आवासीय
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