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तत्त्व : आचार : कथानुयोग] कथानुयोग-राजा प्रदेशी : पायासी राजन्य २०३
एक ओर खड़े पायासी देवपुत्र को गवाम्पति ने देखा, उससे पूछा-"आयुष्मन् ! तुम कौन हो?"
देवपुत्र-“भन्ते ! मैं पूर्व-जन्म का पायासी राजन्य हूँ।"
गवाम्पति-"आयुष्मन् ! क्या तुम्हारा दृष्टिकोण, अभिमत यह था कि न लोक है, पन रलोक है, न पुनर्जन्म है ; इत्यादि ?"
देवपुत्र- "भन्ते ! मेरा ऐसा ही दृष्टिकोण था, अभिमत था, पर, आर्य कुमार काश्यप ने मुझे इस आस्था से-असत् सिद्धान्त से पृथक् किया, सन्मार्ग दिखलाया।"
गवाम्पति-"आयुष्मन् ! तुमने दान-वितरण हेतु उत्तर नामक माणवक को नियुक्त किया था, वह कहाँ पैदा हुआ है ?"
देवपुत्र-"भन्ते ! उत्तर माणवक, जो सत्कार-समादर-पूर्वक दान देता था, प्रसन्नतापूर्वक दान देता था, सम्यक् प्रकार से दान देता था, वह मरणोपरान्त त्रायस्त्रिश देवों में जन्मा है।
"भन्ते ! मैंने जो दिया, सत्कार के बिना, सम्मान के बिना दिया, स्वयं अपने हाथ से नहीं दिया, अन्य द्वारा दिलवाया, मानसिक उत्साह के बिना बेमन से दिलवाया, मृत्यु के अनन्तर मैं चातुर्महाराजिक देवों-सामान्य श्रेणी के देवों में पैदा हुआ।
"भन्ते गवाम्पति! आप मनुष्य-लोक में जाकर लोगों को बतलाएँ-सत्कार-सम्मान के साथ दान दें, स्वयं अपने हाथ से दान दें, अभिरुचिपूर्वक दान दें, मानसिक उत्साह-उल्लास के साथ दान दें, सम्यक् रूप में दान दें।"
पायासी राजन्य सत्कार-सम्मान बिना, अभिरुचि बिना, आन्तरिक उल्लास बिना दान देने के कारण चातुर्महाराजिक देवों, सामान्य श्रेणी के देवों के मध्य पैदा हुआ है तथा सत्कार-सम्मान-पूर्वक, हार्दिक हर्षपूर्वक, सम्यक् प्रकार से दान वितरण करने के कारण उत्तर माणवक त्रायस्त्रिश देवों-उच्च श्रेणी के देवों में उत्पन्न हुआ है।
तब आयुष्मान् गवाम्पति मनुष्य-लोक में आये और उन्होंने उक्त प्रकार से लोगों को उपदेश दिया।
१. आधार--पायासि राजन-सुत्त, दीघनिकाय वग्ग २ सुत्त, १०
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