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________________ आगम और त्रिपिटक : एक अनुशीलन [ खण्ड : ३ इस प्रकार पायासी राजन्य ने सत्य को समझा। उसके सिद्धान्त बदल गये । वह अब आश्वस्त विश्वस्त हुआ कि लोक, परलोक, जीव, पुनर्जन्म, सदसत्कर्मों के शुभाशुभ फल का वास्तव में अस्तित्व है । उसके मन में धर्म-भाव अंकुरित हुआ। वह श्रमणों, ब्राह्मणों, दीनों अनाथों, साघुमों और भिक्षुओं को दान दिलवाने लगा। दान में कनी - मग्न, सामान्य अन्न तथा कांजी जैसे अति साधारण भोज्य पदार्थ और मोटे पुरातन वस्त्र दिये जाते । २०२ पायासी राजन्य और उत्तर माणवक दान वितीर्ण करने हेतु पायासी द्वारा उत्तर नामक एक माणवक---बौना नियुक्त था । वह माणवक दान देने के अनन्तर कहता- इस दान वितरण के कार्य से मेरा इस लोक में पायासी राजन्य से समागम —– साथ हुआ सो ठीक है, परलोक में वह ( साथ) न रहे । पायासी राजन्य ने सुना कि उत्तर माणवक दान देने के अनन्तर इस प्रकार कहता है। पायासी ने उसे अपने पास बुलाया और कहा - "क्या यह सत्य है कि तुम दान वितीर्ण कर इस प्रकार कहते हो ?" माणवक — "राजन्य ! यह सत्य है । मैं ऐसा ही कहता हूँ ।" पायासी - " माणवक ! तुम ऐसा क्यों कहते हो ? दान द्वारा उसके फल रूप में पुण्य अर्जित करना चाहता हूँ, जो परलोक में प्राप्त होगा ।" माणवक - "राजन्य ! आप दान में अति सामान्य, घटिया भोज्य पदार्थ देते हैं, पुराने, मोटे कपड़े देते हैं । ऐसे खाद्य पदार्थ खाना तथा ऐसे वस्त्र पहनना तो दूर रहा, आप उन्हें अपने पैरों से भी छूने को तैयार न हों । दान जैसा दिया जाता है, वैसा ही उसका फल प्राप्त होता है । आप हमें प्रिय हैं, अभीप्सित हैं, मान्य हैं। हमारे प्रिय अप्रिय वस्तुओं के साथ हों, यह हम कैसे देख सकते हैं । इसीलिए मेरी यह भावना है, परलोक में मेरा आपके साथ समागम न रहे ।" पायासी - " माणवक ! अब से तुम उसी प्रकार के भोज्य पदार्थ दान में दो, जैसे मैं खाता हूँ। वैसे ही वस्त्र दान में दो, जैसे मैं पहनता हूँ ।" राजा का आदेश प्राप्त होने पर उत्तर माणवक वैसे ही खाद्य पदार्थ, वैसे ही वस्त्र, जैसे राजा प्रयोग में लेता था, सोत्साह एवं सहर्ष बांटने लगा । पायासी राजन्य ने जीवन भर दान तो दिया, किन्तु, सत्कार-सम्मान के बिना दिया, स्वयं अपने हाथ से नहीं दिया, अन्य के हाथ से दिलवाया, मानसिक उल्लास से नहीं दिया, विमनस्क भाव से दिया, फेंक कर दिया। मरणोपरान्त चातुर्महारुजिक देवों में उसका जन्म हुआ । उसे सेरिस्क नामक छोटा-सा विमान प्राप्त हुआ । दान देने के कार्य में उत्तर नामक जो माणवक नियुक्त था, वह याचकों को बड़े सत्कार-सम्मान के साथ दान देता था । स्वयं अपने हाथ से देता था, मानसिक उल्लास के साथ देता था, सम्यक् रूप में देता था, मर कर उत्तम गति को प्राप्त हुआ । उसका स्वर्ग में त्रायस्त्रिश देवों में जन्म हुआ । उस समय आयुष्मान् गवाम्पति अपने विमान पर समास्थित हो दिन के समय विहरण हेतु बाहर निकला करते थे । देवपुत्र पायासी एक बार जहाँ वे थे, आया । आकर एक तरफ खड़ा हो गया । Jain Education International 2010_05 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002623
Book TitleAgam aur Tripitak Ek Anushilan Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNagrajmuni
PublisherConcept Publishing Company
Publication Year1991
Total Pages858
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Philosophy, Conduct, & Story
File Size17 MB
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