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________________ तत्त्व :आचार : कथानुयोग] कथानुयोग-राजा प्रदेशी : पायासी राजन्य १६६ कारण चद्दर में बांधा, गट्ठर बनाया, अपने शिर पर लादा। आगे चल पड़ा। ज्योंही वह कुछ आगे बढ़ा, अकस्मात् मूसलाधार वर्षा होने लगी। मल का गट्ठर भीग गया, चूने लगा, टपकने लगा, जिससे वह आपाद-कण्ठ-मस्तक से पैरों तक मल से लथपथ हो गया। 'लोगों ने जब उसको उस स्थिति में देखा तो वे उससे कहने लगे-'क्या तुम पागल हो गये हो, क्या तुम्हारे माथे पर कोई सनक सवार है, जो इस प्रकार चूते हुए, टपकते हुए मल का गट्ठर शिर पर लिये जा रहे हो ?' वह शूकर-पालक बोला-'आप ही पागल होंगे, सनकी होंगे, जो ऐसा कहते हैं। यह तो मेरे सूअरों का भोजन है । इतनी दूर से उठाकर लाया हूं, क्यों न लिये चलूं?' "राजन्य ! उस शूकर-पालक की ज्यों तुम अशुचि, मिथ्या विचारों का मलीमस गट्ठर लिये चलाने वाले प्रतीत होते हो। अपने असद् विचारों, मिथ्या सिद्धान्तों का मल के गट्ठर की ज्यों परित्याग कर दो।" पायासी-"काश्यप ! आप जो भी कहें, जितना भी कहें, दीर्घ काल से जिन सिद्धान्तों को मैं लिये चला आ रहा हूँ, उनका परित्याग कैसे कर दूं? यह दुःशक्य है।" काश्यप-"राजन्य ! एक उपमा और बतलाता हूँ। दो जुआरी थे। वे परस्पर जुआ खेलते थे। उनमें एक जुआरी बड़ा धूर्त था। जब पासा उसकी हार का पड़ता तो वह उसे झट उठाकर, छिपाकर निगल जाता। अपनी हार को वह यों बचा लेता। जब पासा सम्मुखीन जआरी के हाथ से उसकी जीत का पड़ता तो उसे भी वह उसी प्रकार निगल जाता। उसकी जीत को सामने नहीं आने देता। दूसरे जुआरी ने उसे एक बार पासा निगलते देख लिया। उसने उसका बुद्धि द्वारा प्रतिकार करना चाहा। उसने उससे कहा-'तुम बड़े विजेता हो। पासे मानो तुम्हारे वशगत हैं। मुझे पासे दो। मैं उनकी पूजा-अर्चा करूं ताकि वे मेरे पक्ष में भी पड़ें, मुझे भी विजय दिलवाएं।' "पहला जुआरी बोला-'बहुत अच्छा, पूजार्थ पासे ले लो।' 'उसने उसको पासे दे दिए । जिसने पासे लिए, उसने-दूसरे जुआरी ने उनको गुप्त रूप में विषाक्त किया-तरल विष में भिगोया, सुखाया। फिर अपने साथी जुआरी के पास आया और बोला-'आओ, जूआ खेलें।' "वह आया। द्यूत-क्रीड़ा का क्रम चला । ज्योंही पासा उसके विपरीत पड़ा, वह पहले की ज्यों उसे उठाकर निगल गया। दूसरे जुआरी ने यह देखा । उसने कहा-'तू नहीं जानता वह पासा, जो तुमने निगल लिया है, तुम्हारी जान ले लेगा, तीव्र विष-दग्ध है। धूर्त ! तू अब अपने दुष्कृत्यों का फल भोग।' "राजन्य ! प्रतीत होता है, तुम उस जुआरी के सदृश हो, जो विषदग्ध पासे को निगल गया। विषाक्त पासे के सदृश अपने उलटे, गलत सिद्धान्तों को छोड़ दो, जिससे तुम्हारा भविष्य दुःख-वजित एवं कल्याणान्वित हो।" पायासी -"काश्यप ! बद्धमूल धारणाओं को त्याग देना बहुत कठिन है, लज्जाजनक है। मैं इस लज्जा के प्राचीर को लांघ नहीं सकता।" "राजन्य ! फिर एक उदाहरण देता हूँ। पुरावर्ती काल में एक बहुत समृद्धिशाली, वैभवसम्पन्न जनपद था। किसी अन्य स्थान में निवास करने वाले दो मित्रों ने जब उस जनपद के सम्बन्ध में सुना तो एक मित्र दूसरे से बोला--'जहाँ वह जनपद है, हम दोनों वहां Jain Education International 2010_05 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002623
Book TitleAgam aur Tripitak Ek Anushilan Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNagrajmuni
PublisherConcept Publishing Company
Publication Year1991
Total Pages858
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Philosophy, Conduct, & Story
File Size17 MB
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