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१९८ आगम और त्रिपिटक : एक अनुशीलन
[खण्ड : ३ बनजारों के मुखिया को उक्त सुझाव दिया था, वास्तव में एक राक्षस था। उन्हें असहाय एवं क्षीण देखकर वह उन पर टूट पड़ा, सभी आदमियों तथा पशुओं को खा गया। वहाँ उनकी अस्थियाँ मात्र बची रही।
"कुछ दिन बाद बनजारों के दूसरे काफ़िले का मुखिया भी अपने सार्थ के साथ आगे बढ़ा। दो-तीन दिन चलने के उपरान्त उसे भी वह काले रंग का, लाल नेत्रों वाला पुरुष मिला । उसने पूर्ववर्ती सार्थ के मुखिया को जैसा कहा था, इसको भी वैसा ही कहा.---'क्यों फिजूल अपने बैलों को कष्ट देते हैं ? आगे तो तृण आदि सब सुप्राप्य हैं ही।'
___ "इस पर बनजारों के इस मुखिया ने सोचा, यह पुरुष हमें ऐसा क्यों कह रहा है कि आगे वन में बहुत वृष्टि हुई है, तृण आदि सभी अपेक्षित पदार्थ सुलभ हैं। इस पुरुष से न हमारा कोई पूर्व परिचय है, न हमारा यह मित्र है और न इसके साथ हमारा कोई खून का रिश्ता है। इस पर हम लोग कैसे विश्वास करें। ऐसे अज्ञात-कुलशील पुरुष का विश्वास नहीं करना चाहिए । इसलिए हम अपने साथ के तृण, काष्ठ एवं जल को यहाँ नहीं छोड़ेंगे, अपने साथ लिये चलेंगे।
साथी बनजारे बोले-"बहुत अच्छा, जो आप कहते हैं, वह ठीक है।' वे आगे बढ़े। वे पहले पड़ाव पर, यों आगे क्रमशः सातवें पड़ाव पर पहुँचे । कहीं कुछ नहीं मिला । सातवें पड़ाव पर उन्होंने पिछले सार्थ के बनजारों तथा उनके पशुओं की हड्डियों के ढेर देखे, जिन्हें वह राक्षस खा गया था। सारी स्थिति उनकी समझ आ गई। उस सार्थ का सारा माल-असबाब वहीं पड़ा था।
'मुखिया ने अपने साथी बनजारों से कहा-'अपने सार्थ में जो कम कीमत की वस्तुएं हैं, उन्हें हम यही डाल दें तथा इस सामान में से बहुमूल्य वस्तुएँ लेकर अपनी गाड़ियों में भर लें।' बनजारों ने वैसा ही किया और वे सुखपूर्वक, निर्विघ्न उस वन को पार कर गये।
"राजन्य ! उसी प्रकार तुम उस पहले कारवां के बनजारों की ज्यों अज्ञ हो, अबोध हो । अनुचित, अनुप्रयुक्त रूप में परलोक की, जीव की गवेषणा करते हुए तुम भी उसी प्रकार नष्ट हो जाओगे, जैसे वह पहला सार्थ अपने साथ की आवश्यक सामग्री फेंक कर असंभाव्य, अविश्वस्य तृण आदि की खोज करता नष्ट हो गया। जैसे उस सार्थवाह के साथ-साथ उसकी बात पर विश्वास करने वाले सभी लोग नष्ट हो गये, उसी प्रकार जो तुम्हारी बातें सुनते हैं, उनमें विश्वास करते हैं, वैसी मान्यता रखते हैं, वे सभी नष्ट हो जायेंगे।"
पायासी- "काश्यप ! आप जो भी कहें, कोशलनरेश प्रसेनजित् तथा अन्य राजा व लोग मेरे विषय में जो कहेंगे, उसकी कल्पना कर मैं नहीं सोच पाता, साहस नहीं कर पाता कि अपने गलत मत का परित्याग कर दूं। ऐसा करना मेरे लिए बड़ा लज्जाजनक होगा।"
काश्यप-"राजन्य ! एक उदाहरण और सुनो । बहुत पहले की बात है, एक शूकर-पालक था। वह अपने ग्राम से किसी अन्य ग्राम में आया। उसने वहाँ मल का एक बड़ा ढेर देखा, जो सूखा था। उसने अपने मन में विचार किया—यह शुष्क मल मेरे सूअरों के खाने के काम को उपयोगी वस्तु है; अत: मुझे चाहिए, मैं यहाँ से जितना उठा सकू, सूखा मल उठा लूं। तब उसने अपनी चद्दर फैलाई, मल बटोरा, जितना समा सका, उस
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