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आगम और त्रिपिटक : एक अनुशीलन
[खण्ड :३
चलें। थोड़े ही समय में हम विपुल धन अजित कर लायेंगे।' साथी मित्र को यह प्रस्ताव रुचिकर लगा। दोनों उस जनपद में जाने को सहमत हुए।
"दोनों मित्र उस जनपद की दिशा में रवाना हुए। कुछ दूर चलने पर उन्हें बहुत-सा सन इधर-उधर पड़ा मिला। एक मित्र दूसरे मित्र से बोला-'यहाँ बहुत-सा सन फेंका है। हम दोनों इसमें से जितना ले सकें, ले लें, एक-एक गट्ठर बाँध लें, ले चलें। दोनों ने एक-एक गट्ठर बाँध लिया, उठाया और आगे रवाना हुए।
__ "कुछ आगे जाने पर एक गांव आया। उसके पास ही उन्हें सन का कता सूत बड़े परिमाण में क्षिप्त दिखाई दिया। यह देखकर पहले मित्र ने दूसरे मित्र से कहा-'सन से सूत बनता है, जिसके लिये हम उसके गट्ठर लिये चल रहे हैं। सन का कता हुआ सूत जब यहाँ प्राप्त है तो हमें सन को यहाँ डाल देना चाहिए तथा सूत के गट्ठर बनाकर लिये चलना चाहिए।'
__"उसका साथी बोला--'मैं तुम्हारे कथन से सहमत नहीं हूँ। सन का गट्ठर इतनी दूर से लिये आ रहा हूँ, गट्ठर भलीभांति बँधा है, उसे खोलूं, दूसरा बाँधूं, यह मुझसे नहीं होने का। मेरे लिए यह सन ही ठीक है, काफ़ी है।
"मित्र इससे अधिक और क्या करता। जब वह नहीं माना तो उसने अपना गट्ठर खोला, सन वहीं डाल दिया और सूत का गट्ठर बाँध लिया। दूसरा अपने उसी सन के गट्ठर के साथ रहा। दोनों चले। कुछ दूर जाने पर उन्हें बहुत-सा टाट फेंका हुआ दिखाई दिया। जो सन के सूत का गट्ठर लिये था, उसने अपने सहचारी मित्र से कहा-'मैं सन का सूत छोड़ दूं, तुम सन छोड़ दो । हम दोनों टाट के गट्ठर बाँध लें । सन तथा सन का सूत टाट के लिए ही होता है।' पर, वह नहीं माना । जो सन का सूत लिये था, उसने सन छोड़कर टाट ले लिया। दूसरा सन ही लिये रहा। फिर कुछ दूर जाने पर अलसी का कोमल रेशों से युक्त सन दिखाई दिया। अपनेपन तथा मित्र-भाव के कारण पहले मित्र ने अपने साथी से कहा-'अलसी का सन बहुमूल्य है। हम अपनी-अपनी वस्तुएँ छोड़ दें। अपन दोनों अलसी के सन के गट्ठर बाँध लिये चलें ।' दूसरा नहीं माना। उसने कहा-'मैं अपना बँधा गट्ठर खोलना, फिर नया बाँधना; यह सब नहीं चाहता। मुझे पूर्ववत् रहने दो। तुम अपना जानो।'
"पहले ने टाट वहीं छोड़कर अलसी के सन का गट्ठर बाँधा। यह क्रम आगे चलता रहा । कुछ दूर जाने पर अलसी के सन का सूत मिला, फिर कपास, ताम्र, रांगा, शीशा, रजत एवं स्वर्ण मिला । क्रमश: उत्तरोत्तर ज्यों-ज्यों बहुमूल्य पदार्थ मिलते गये, पहला मित्र पिछलों को छोड़ता गया, अगलों को लेता गया। दूसरा अपनी जिद्द पर अड़ा रहा। उसने अपना सन का गट्ठर नहीं खोला। दोनों अपने गाँव में पहुँचे । एक के पास स्वर्ण-भार था, दूसरे के पास सन का गट्ठर । जो सन का गट्ठर लिये आया, उसके माता-पिता, स्त्री, मित्र, पुत्र, सम्बन्धी, साथी-- जो घटित हुआ, वह सब जानकर, सुन कर, देखकर जरा भी प्रसन्न नहीं हुए, सुखी नहीं हुए, मन में हर्षित नहीं हुए। जो मित्र स्वर्णभार लिये लौटा, उसके माता-पिता, स्त्री, मित्र, पुत्र, सम्बन्धी, साथी-सभी बहुत प्रसन्न हुए, बड़े सुखी हुए, मन में हर्षित हुए। वे उसके साथ अत्यन्त सुख-सुविधापूर्वक रहने लगे।
"राजन्य ! मुझे तुम अपनी जिद्द पर अड़े रहकर सन का गट्ठर ढोने वाले उस
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