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आगम और त्रिपिटक : एक अनुशीलन
[ खण्ड : ३
बात है, एक जटाधारी पुरुष था । वह अग्नि-उपासक था । वह वन के बीच वृक्षों के पत्तों द्वारा निर्मित एक कुटी में निवास करता था । उस स्थान पर व्यापारियों का — बनजारों का सार्थ काफ़िला आया । बनजारे उस जटाधारी, अग्नि-उपासक पुरुष की कुटी के समीप एक रात रुके और चले गये । उस जटाधारी ने सोचा- इन बजजारों के अधिनायक मुखिया के पास मैं जाऊं, उससे कुछ प्राप्त हो सकेगा। वह पुरुष वहाँ से उठा, जहाँ बनजारों का मुखिया था, उधर चला। रात को बनजारों का जहाँ पड़ाव था, वहाँ पहुँचा । वहाँ उसने एक बच्चे को देखा, जो काफ़िले से छूट गया था, पीछे रह गया था । बच्चा बहुत छोटा था । उसने विचार किया, यदि देखभाल एवं सुरक्षा नहीं की जायेगी तो यह बच्चा मर जायेगा। यह उचित नहीं होगा कि मेरे देखते एक बालक यों असहायावस्था में मर जाए । इसलिए मुझे चाहिए, इस बच्चे को मैं अपने आश्रम में ले जाऊं, इसे पालूं-पोसूं, बड़ा करूं । तदनुसार वह उस बच्चे को आश्रम में लाया, उसका पालन-पोषण किया, उसे बड़ा किया । "वह बालक दस-बाहर वर्ष का हो गया । एक बार किसी आवश्यक कार्य से उस जटाधारी पुरुष को जनपद में जाना था । उसने उस लड़के को कहा – “तात ! मैं जनपद में जा रहा हूँ । तुम अग्नि की सेवा करते रहना, उसे बुझने न देना ।' उसने उसे एक कुल्हाड़ी, दो अरणी तथा कुछ लकड़ियाँ दीं और हिदायत की कि यदि आग बुझ जाए तो ये साधन हैं फिर अग्नि उत्पन्न कर लेना । यों कहकर वह अपने गन्तब्य की ओर चला गया ।
"बालक तो था ही, खेल में लगा रहता, एक दिन अग्नि बुझ गई। उसने सोचापिता की आज्ञा है, मुझे अग्नि उत्पन्न कर लेनी चाहिए, उसे जलते रखना चाहिए । तब उसने कुल्हाड़ी हाथ में ली तथा दोनों अरणियों को चीरना, फाड़ना शुरू किया। काट-काट कर उसने दो, तीन, पाँच, दश, क्रमशः सौ टुकड़े तक कर डाले, उन्हें ऊंखल में डालकर कूटा, हवा में उड़ाया, किन्तु, इतना सब करने के बावजूद उससे अग्नि नहीं निकली।
"वह जटाधारी अग्नि- आराधक जनपद में अपना कार्य पूर्ण कर वापस लौटा । अपने आश्रम में आया। आकर उस बालक से पूछा -- ' बेटा ! आग बुझ तो नहीं गई ?' बालक ने कहा- "तात ! 'खेलने में लग गया था, इसलिए आग बुझ गई । आपके कथनानुसार मैंने अग्नि उत्पन्न करने की बड़ी चेष्टा की । अरणियों को चीर डाला, फाड़ डाला, उनके सौ तक टुकड़े कर डाले, ऊंखल में कूटा, हवा में उड़ाया, किन्तु, फिर भी आग उत्पन्न नहीं हुई ।'
"उस पुरुष ने मन-ही-मन सोचा, यह लड़का बड़ा अज्ञ है, नासमझ है। इसी कारण साधनों के रहते हुए भी यह अग्नि उत्पन्न नहीं कर सका। उसने उस बालक के समक्ष अर णियों को लिया। उनसे यथा विधि अग्नि उत्पन्न की और उस बालक से कहा - 'आग इस प्रकार उत्पन्न की जाती है । जिस प्रकार तुमने प्रयत्न किया, वैसा करने से अग्नि उत्पन्न नहीं होती; क्योंकि वह अग्नि उत्पन्न करने की विधि नहीं है ।'
"राजन्य ! तुम भी उस बालक की ज्यों अज्ञान - पूर्वक, अनुपयुक्त रूप में परलोक की जीव गवेषणा कर रहे हो। तुम्हारी धारणा ठीक नहीं है । तुम उसे बदलो, जिससे तुम्हारा भविष्य दुःखाकीर्ण न हो, अश्रेयस्कर न हो। "
पायासी- "काश्यप ! आप चाहे जो कहें मैं अपनी इस भी त्याग नहीं सकता । कोशल नरेश प्रसेनजित्, अन्यान्य राजा
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धारणा को असत् होते हुए और दूसरे लोग यह जानते
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