________________
तत्त्व : आचार : कथानुयोग] कथानुयोग-राजा प्रदेशी : पायासी राजन्य १६५
"काश्यप ! ऐसी स्थिति में लोक, परलोक, जीव आदि के अस्तित्व से सम्बद्ध बातें मैं कैसे मान सकता हूँ। मैं अपनी उसी मान्यता पर दृढ़ हूँ कि न लोक है, न परलोक है; इत्यादि ।"
काश्यप---"पायासी ! बहुत दिन पूर्व की बात है, एक शंखवादक शंख लिए नगर से चलकर गांव में आया। गाँव के बीच में खड़े होकर उसने तीन बार शंख बजाया। फिर शंख को भूमि पर रखा और एक तरफ बैठ गया। उस गाँव के आसपास के स्थान के लोगों के मन में आया--ऐसा रम्य, सुन्दर, उल्लासपूर्ण, मनोहर एवं मोहक शब्द किसका है ? वे सभी एकत्र होकर शंख वादक के पास आये और उससे उस श्रुति-मधुर शब्द-ध्वनि के विषय में पूछा।
"शंखवादक ने कहा -- यह वह शंख है, जिससे यह शब्द निकला है।'
“उन लोगों ने शंख को सीधा रखा और वे उससे कहने लगे—'शंख ! तुम बजो, ध्वनि-प्रसार करो !' शंख नि:शब्द रहा । तब उन्होंने उस शंख को उलटा रखा, टेढ़ा रखा, करवट के बल रखा और शंख को बजने के लिए कहते रहे, किन्तु, शंख नहीं बजा।
"राजन्य ! शंखवादक ने जब यह देखा तो उसे मन-ही-मन लगा--ग्रामवासी बड़े मूढ़ हैं। इन्हें शंख बजाना भी नहीं आता। उसने उन लोगों के देखते-देखते शंख उठाया, उसको तीन बार बजाया। फिर वहाँ से चला गया।
“राजन्य ! इससे गाँव वालों ने समझा-शंख तब बजता है, जब कोई वादक पुरुष हो, वह बजाने का व्यायाम करे-प्रयास करे, मुंह से वायु फूंके, उसी प्रकार जब मनुष्य आयुष्य के साथ होता है, श्वास-प्रश्वास युक्त होता है, विज्ञान के साथ होता है, तभी वह हिलता-डुलता है, खड़ा रहता है, बैठता है, सोता है। वह आँखों से रूप देखता है, कानों से शब्द-श्रवण करता है, नासिका से गन्ध सूंघता है, जीभ से रस चखता है, शरीर से संस्पर्श करता है, तथा मन से विविध धर्मों को विभिन्न पदार्थों के स्वरूपों को एवं विषयों को जानता है। जब यह शरीर आयुष्य, श्वास-प्रश्वास तथा विज्ञान युक्त नहीं होता तो न वह (मनुष्य) नेत्रों द्वारा रूप देखता है, न कानों से शब्द सुनता है, न नासिका से गन्ध सूंघता है, न जीभ से रस का स्वाद लेता है, न देह से संस्पर्श करता है तथा न मन द्वारा विभिन्न पदार्थों के स्वरूप तथा विषय जानता है । अस्तु, इस स्थिति को देखते हुए तुम्हें यह समझना चाहिए कि लोक-परलोक आदि का अस्तित्व है।"
पायासी-"काश्यप ! फिर भी बात पकड़ में नहीं आती। मैं तो अपनी पूर्व-कथित मान्यता पर ही दृढ़ हूँ।"
काश्यप-"राजन्य ! ऐसा तुम कैसे कहते हो ?"
पायासी--"मेरे, कर्मचारी एक अपराधी को मेरे पास लाये । मैंने उन्हें आदेश दिया कि इस मनुष्य की चमड़ी उधेड़ डालो, जिससे मैं इसके जीव को प्रत्यक्ष देख सकं । मेरे आदेश के अनुसार उन्होंने उसकी चमड़ी उधेड़ डाली, किन्तु, उसका जीव दृष्टिगोचर नहीं हुआ। फिर मैंने उनसे कहा, इसका मांस खरोंच डालो, इसकी नाड़ियाँ उधेड़ दो, इसकी हड्डियां बिखेर दो, चर्बी काट-काट कर इसे. छांग दो, जिससे किसी प्रकार इसका जीव मुझे दिखाई दे सके । जैसा-जैसा मैंने आदेश दिया, वे करते गये, किन्तु, इसके बावजूद मुझे उसका जीव दिखाई नहीं दिया। इस कारण मेरी मान्यता में कोई अन्तर नहीं आता।"
काश्यप-"राजन्य ! मैं एक उदाहरण द्वारा इस तथ्य को समझाता हूँ। पुरानी
____Jain Education International 2010_05
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org