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________________ ૨૪ आगम और त्रिपिटक एक अनुशीलन [ खण्ड : ३ मैंने उन्हें आदेश दिया, पहले इसे तराजू पर तोलो, इसका तोल ध्यान में रखो। फिर रस्सी द्वारा इसका गला घोंट दो, इसे जान से मार दो, फिर इसे तराजू पर तोलो । मेरे कर्म - चारियों ने मेरे आदेश का पालन किया । परिणाम यह निकला, वह जब जीवित था, तब हलका था, किन्तु, मरने के पश्चात् वही शव भारी हो गया । अर्थात् जब शरीर से जीव निकल गया, तब तो वह शरीर और अधिक हलका होना चाहिए, किन्तु, इससे उल्टा हुआ । इसलिए शरीर से न जीव भिन्न है, न उसका अपना स्वतन्त्र अस्तित्व ही है । जीव का मर कर फिर जन्म लेना, लोक, परलोक आदि का होना, यह सब मेरी समझ में नहीं आता । आप चाहे जैसा बतलाएं, मेरी तो पूर्ववत् वही धारणा है ।" काश्यप - "राजन्य ! एक उपमा द्वारा, दृष्टान्त द्वारा अपना अभिमत और स्पष्ट करता हूँ। एक लोहे का गोला है, जो आग में अत्यधिक तपा है, दमक रहा है, जल रहा है, दहक रहा है । एक पुरुष उसे तराजू द्वारा तोलता है। कुछ समय पश्चात् उसके ठंडे हो जाने पर उसे वह फिर तोलता है । बतलाओ, वह लोहे का गोला, जब अत्यन्त तपा हो, तब हल्का होगा या जब शीतल हो, तब हल्का होगा ?" पायासी — “जब वह लोहे का गोला आग तथा हवा के साहचर्य से परितप्त हो, आदीप्त हो, प्रज्वलित हो, तब हल्का होता है और कुछ समय बाद वह शीतल हो तो वह भारी हो जाता है ।" "राजन्य ! यही बात शरीर के साथ है । जब वह आयुष्य, श्वास-प्रश्वास एवं विज्ञान के साथ होता है, तब वजन में हल्का होता है। जब वह शरीर आयुष्य, श्वास-प्रश्वास एवं विज्ञान के साथ नहीं होता तो भारी हो जाता है । अस्तु, इससे जीव, लोक, परलोक आदि की सिद्धि होती है ।" पायासी — "काश्यप ! आप द्वारा इतना समझाये जाने पर भी आपकी बात समझ में नहीं आती, मेरी मान्यता में अन्तर नहीं आता ।" काश्यप - "समझ में नहीं आने के सम्बन्ध में कोई तर्क दे सकते हो ? " पायासी – "हां, काश्यप ! दे सकता हूँ । मेरे कर्मचारी एक बार एक अपराधी को मेरे पास लाए। मैंने उन्हें आदेश दिया कि इस मनुष्य को एक बार जान से मत मारो, इसका मांस, नाड़ियाँ, हड्डियाँ और चर्बी -- इन सबको अलग-अलग कर दो। मैं इसकी देह से बाहर निकलते जीव को देख सकूं । मेरे कर्मचारियों ने मेरे आदेश के अनुरूप वैसा ही किया । वह पुरुष लगभग मरने की स्थिति में आ गया। मैंने उनसे कहा - इसे पीठ के बल चित लिटा दो। कुछ ही क्षणों में यह मरने वाला है । जब मरेगा, इसका जीव निकलेगा, मैं उसे देखूंगा । मेरे कथानुसार कर्मचारियों ने उस पुरुष को पीठ के बल चित लिटा दिया। मैं गौर से देखता रहा, किन्तु, मुझे उसका जीव बाहर निकलता नहीं दीखा ।" मैंने अपने कर्मचारियों से फिर कहा - "इसे उलटा — पेट के बल सुलाओ, एक करवट से सुलाओ, फिर दूसरी करवट से सुलाओ, ऊपर खड़ा करो, इसे हाथों से पीटो, पत्थर से मारो, इस पर लाठी प्रहार करो, अन्य शस्त्रों द्वारा प्रहार करो, इसे हिलाओ, डुलाओ, झकझोरो, जिससे मैं इसके जीव को बाहर निकलते देख सकूं ।" मैंने जैसी आज्ञा दी, वह सब उन कर्मचारियों ने किया, किन्तु, मैंने और उन्होंने तिस पर भी जीव को शरीर से बाहर निकलते नहीं देखा । Jain Education International 2010_05 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002623
Book TitleAgam aur Tripitak Ek Anushilan Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNagrajmuni
PublisherConcept Publishing Company
Publication Year1991
Total Pages858
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Philosophy, Conduct, & Story
File Size17 MB
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