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________________ तत्त्व : आचार : कथानुयोग] कथानुयोग-राजा प्रदेशी : पायासी राजन्य १६३ लेते हैं। राजन्य ! इसलिए श्रमण-ब्राह्मण अपरिपक्व का स्वयं परिपाक नहीं करते, किन्तु, ज्ञानी जनों की ज्यों सहज रूप में संभूयमान परिपाक की प्रतीक्षा करते हैं। "राजन्य ! वैसे श्रमण-ब्राह्मणों के जीने में लाभ भी है। जितने ज्यादा समय वे जीवित रहते हैं, उतना ही पुण्य अजित करते हैं, लोगों का हित करते हैं। उन्हें सुख पहुंचाने का प्रयत्न करते हैं। यह सब देखते हुए तुम्हें यह जानना चाहिए और मानना चाहिए कि लोक, परलोक आदि का अस्तित्व वस्तुत: है।" पायासी- "काश्यप ! यद्यपि आपने समझाया, पर, मेरी समझ में बात अभी बैठी नहीं। मेरी तो वही धारणा है, जो पहले थी।" काश्यप-"इसके लिए कोई तर्क प्रस्तुत करो।" पायासी-"हां काश्यप ! करता हूँ। मेरे कर्मचारी एक चोर को, अपराधी को पकड़कर मेरे पास लाए और कहने लगे-'यह चोर है, अपराधी है। आप जैसा उचित समझे, इसे दण्ड दें।' मैंने उन्हें आदेश दिया-'इस पुरुष को जीते जी एक बड़े हाँडे में डालो। हाँडे का मुंह बन्द कर दो। उस पर गीला चमड़ा बाँध दो। चमड़े को गीली मिट्टी से लीप दो। फिर उसे चूल्हे पर रख दो और चूल्हे में आग जला दो। ___ "मेरे कर्मचारियों ने मेरी आज्ञा के अनुसार किया। चूल्हा जलते, आँच लगते जब काफी देर हो गई और मैंने समझा कि वह मनुष्य मर गया होगा तो मैंने उस हाँडे को चूल्हे से नीचे उतरवाया, यह सोचकर धीरे से उसका मुंह खुलवाया कि मैं जीव को हांडे से बाहर निकलते हुए देखू पर मुझे जीव बाहर निकलता हुआ नहीं दिखाई दिया। काश्यप ! यह देखते मेरा अपना विश्वास दृढ़ है कि न लोक है और न परलोक है, न जीव मरकर उत्पन्न होता है, न जीव तथा शरीर भिन्न-भिन्न हैं।" काश्यप-"राजन्य ! मैं तुम्हें एक बात पूछता हूँ, तुमने सोते समय क्या कभी सपने में सुन्दर उद्यान, सुन्दर भूमि, सुन्दर सरोवर देखा है ?" पायासी-"हाँ, काश्यप ! देखा है।" काश्यप-"उस समय कुन्ज, वामक, स्त्रियाँ, कुमारिकाएँ-ये सब क्या तुम्हारे अन्तःपुर के प्रहरी के रूप में उपस्थित नहीं थे?" पायासी-"हां, काश्यप थे।" काश्यप-"क्या उन्होंने तुम्हारे जीव को उद्यान आदि देखने हेतु देह के भीतर से बाहर निकलते, उद्यान आदि की ओर जाते, उन्हें देखकर वापस लौटते और फिर देह के भीतर प्रवेश करते नहीं देखा?" पायासी-"काश्यप ! ऐसा नहीं हुआ है। उन्होंने जीव को नहीं देखा।" काश्यप-"राजन्य ! जब वे तुम्हारी जीवित अवस्था में भी जीव को देह से बाहर निकलते तथा भीतर जाते नहीं देखते तो तुम एक मृत व्यक्ति की देह से जीव को बाहर निकालते कैसे देख सकते हो? इस कारण जीव आदि का, लोक, परलोक आदि का अपना स्वतन्त्र अस्तित्व है, यह तुम्हें मान लेना चाहिए।" पायासी-"काश्यप ! फिर भी बात मन में जमती नहीं।" काश्यप-"बात न जमने का कोई कारण या तर्क है ?" पायासी-"है, बतलाता हूँ-मेरे कर्मचारी एक चोर को पकड़कर मेरे पास लाए। ____Jain Education International 2010_05 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002623
Book TitleAgam aur Tripitak Ek Anushilan Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNagrajmuni
PublisherConcept Publishing Company
Publication Year1991
Total Pages858
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Philosophy, Conduct, & Story
File Size17 MB
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