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________________ १६२ आगम और त्रिपिटक : एक अनुशीलन [खण्ड : ३ वन में निवास करते हैं, प्रसन्नतापूर्वक संयम का पालन करते हैं, वे अलौकिक दिव्य चक्षु प्राप्त करते हैं। उन्हीं दिव्य चक्षुओं द्वारा वे इस लोक को देखते हैं, परलोक को देखते हैं। "राजन्य ! जैसा तुम समझते हो, इन चर्म-चक्षुओं से परलोक को देखा जा सकता है, यह ठीक नहीं है। वह तो अलौकिक नेत्रों द्वारा ही देखा जा सकता है। इसलिए तुम्हें यह मानना चाहिए कि यह लोक भी है, परलोक भी है-इत्यादि।" पायासी-"काश्यप ! आप चाहे जैसा कहें, बात जंचती नहीं। मेरे मन में तो यही जमा हुआ है कि न लोक ही है और न परलोक ही है ; इत्यादि।" काश्यप-"राजन्य ! इसके लिए कोई और तर्क तुम्हारे पास है ?" पायासी-"काश्यप ! हाँ, है।" काश्यप-"बतलाओ, वह क्या है ?" पायासी-“मैं ऐसे उच्च आचारयुक्त, कल्याणमय, पवित्रात्मा श्रमण-ब्राह्मणों को देखता हूँ, जिनमें जिजीविषा--जीने की इच्छा है, मुमूर्षा-मरने की की इच्छा नहीं है। वे दु:ख से बचना चाहते हैं, सुख प्राप्त करना चाहते हैं। काश्यप ! तब मेरे मन में सहसा यह भाव उत्पन्न होता है कि यदि ये उच्च आचार शील, पावनचेता श्रमण-ब्राह्मण यह मानते हैं कि मरने के बाद हमारा कल्याण होगा तो वे उसी समय जहर खाकर, पेट में छुरा भोंक कर, अपना गला घोंटकर या गड्ढे में गिरकर अपने आपको समाप्त कर देते -आत्मघात कर लेते, किन्तु, वे ऐसा नहीं करते । इससे प्रतीत होता है कि वे वस्तुतः ऐसा नहीं मानते कि उपरान्त उनका कल्याण होगा। इससे लोक, परलोक आदि न मानने का मन्तव्य सिद्ध होता है।" काश्यप--"राजन्य ! मैं एक उदाहरण द्वारा अपनी बात समझाना चाहता हूँ। निपुण पुरुष उदाहरण द्वारा तथ्य को हृदयंगम कर लेते हैं । "राजन्य ! पुरावर्ती समय की बात है, एक ब्राह्मण के दो पत्नियाँ थीं। एक पत्नी के दस-बारह वर्ष का पुत्र था, दूसरी पत्नी के गर्भ था। ऐसी स्थिति में उस ब्राह्मण की मृत्यु हो गई। तब उस बालक ने अपनी सौतेली मां से कहा- 'जो यह सम्पत्ति, सुवर्ण, रजत, धन, धान्य आदि घर में है, उन सबका अधिकारी मैं हूँ। इसमें तुम्हारा कोई हक नहीं है । यह सब मेरे पिता का दाय है, जिसका उत्तराधिकार मुझे प्राप्त है बालक द्वारा यों कहे जाने पर सौतेली मां ने उससे कहा- 'तब तक ठहरो, जब तक मेरे सन्तान हो जाए। यदि वह पुत्र होगा तो तो उसका भी आधा भाग होगा और यदि पुत्री होगी तो तुम्हें उसका पालन-पोषण करना होगा। उस बालक ने यह सुनकर दूसरी बार भी अपनी वही बात दुहराई कि समन सम्पत्ति का हकदार वही है। उसकी सौतेली मां ने भी फिर वही बात कही, जो उसने पहले कही थी कि उसके प्रसव हो जाने तक ठहरो। "बालक नहीं माना। तीसरी बार भी उसने वही बात दुहराई । तब ब्राह्मणी ने यह सोचकर कि लड़का बार-बार मुझे एक ही बात कह रहा है, इसलिए चाहे पुत्र हो या पुत्री मुझे अभी प्रसव करना चाहिए। उसने एक छुरा लिया, कोठरी के अन्दर गई और अपना पेट चीर डाला। फलतः वह खुद भी मर गई तथा उसके गर्भ का भी नाश हो गया । जैसे अनुचित रूप में दाय भाग की कामना करने वाली वह मूर्ख, अज्ञ स्त्री नष्ट हो गई, उसी तरह वे मनुष्य मूर्ख और अज्ञ होते हैं, जो असमय में परलोक के सुख की कामना से आत्मघात कर ____Jain Education International 2010_05 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002623
Book TitleAgam aur Tripitak Ek Anushilan Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNagrajmuni
PublisherConcept Publishing Company
Publication Year1991
Total Pages858
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Philosophy, Conduct, & Story
File Size17 MB
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