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तत्त्व : आचार : कथानुयोग ] कथानुयोग-राजा प्रदेशी : पायासी राजन्य १९१ ही देवताओं को मनुष्यों की दुर्गन्ध आने लगती है। फिर यह कैसे संभव हो, तुम्हारे सुहृद्, मन्त्री तथा खानदान के लोग स्वर्ग में पैदा होकर, उत्तम गति पाकर, फिर लौटकर तुम्हारे पास आएं और तुम्हें यह कहें कि लोक भी है, परलोक भी है..... इत्यादि । अस्तु, इस हेतु से तुम्हें लोक, परलक आदि का अस्तित्व स्वीकार करना चाहिए।"
पायासी-"काश्यप ! चाहे आप जो भी कहें, मुझे तो ऐसा ही जंचता है, मैं तो पूर्ववत् यही मानता हूँ कि लोक, परलोक आदि नहीं हैं।"
काश्यप- "इसके लिए कोई तर्क ?'
पायासी-"काश्यप ! मेरे पास तर्क है। जब मैंने जीव-हिंसा आदि दुष्कृत्यों से विरत अपने आत्मीय-जनों को इतना जोर देकर कहा कि वे मुझे आकर कहें, उन्होंने स्वीकार भी किया कि वे ऐसा करेंगे, किन्तु, जैसी भी स्थिति हो, कोई तो आकर कहता अथवा किसी के द्वारा अपना सन्देश भिजवाता, किन्तु, किसी ने भी वैसा न किया। इससे मैं यही मानता हूँ कि न स्वर्ग-नरक है, न लोक-परलोक ही है और न जीव के मरणोपरान्त जन्म ही होता है।
काश्यप-"राजन्य ! एक बात और सुनो। मनुष्यों का जो सौ वर्ष का समय होता है, त्रायस्त्रिंश देवों का वह एक अहोरात्र होता है । वैसे तीस अहोरात्र का एक मास होता है । वैसे बारह मासों का एक वर्ष होता है। उस प्रकार के सहस्र वर्ष त्रायस्त्रिंश देवों के आयुष्य का परिमाण है। तुम्हारे सुहृद्, मन्त्री, कौटुम्बिक पुरुष आदि मरणोपरान्त त्रायस्त्रिश देवों के रूप में स्वर्ग में पैदा हुए हों, उत्तम गति को प्राप्त हुए हों, उनके मन में यदि ऐसा आया भी हो कि हम दो-तीन अहोरात्र दिव्य काम-भोगों का आनन्द ले लें, फिर पायासी राजन्य के पास जाएं और उससे ऐसा कहें कि यह लोक भी है, पर लोक भी है, इत्यादि। और वे यदि कहने हेतु आएं भी तो मैं यह पूछता हूँ, क्या यह संभव होगा, वे कहें और तुम सुनो।"
पायासी- "काश्यप ! यह संभव नहीं होगा; क्योंकि देवों के दो-तीन अहोरात्र व्यतीत होने का अर्थ हमारे सैकड़ों वर्ष व्यतीत होना होगा। देवों के यह कहने हेतु आने के बहुत पहले ही हम मर चुके होंगे। किन्तु, काश्यप ! त्रायास्त्रश देवों का आयुष्य इतना लम्बा होता है, मैं यह नहीं मानता।"
___ काश्यप----"राजन्य ! उदाहरणार्थ एक मनुष्य जन्म से अन्धा है। न उसने काला, न उजला, न नीला, न पीला, न लाल, न मंजिष्ठ, न ऊँचा तथा न नीचा देखा है, न तारे, न चन्द्र और न सूर्य ही देखा है। वह कहे कि न काला है, न उजला है, न नीला है, न पीला है, न लाल है, न मंजिष्ठ है, न ऊँचा है, न नीचा है, न तारे हैं, न चन्द्र है और न सूर्य ही है। न कोई ऐसा है, जो इनको देखता है, यह इसलिए कि मैं उन सबको नहीं देखता । राजन्य ! क्या उस जन्मान्ध पुरुष का ऐसा कहना उचित है ?"
पायासी-"काश्यप ! उसका ऐसा कहना उचित नहीं है, ठीक नहीं है। काला, उजला आदि सब हैं । ऐसा पुरुष भी है, जो इनको देखता है। जन्मान्ध जो यह कहे कि मैं उन्हें नहीं देखता, इसलिए वे नहीं हैं, यह कैसे हो?"
__ काश्यप- “राजन्य ! तुम भी मुझे उस जन्मान्ध पुरुष जैसे लगते हो, जो यह कहते हों कि त्रायस्त्रिश देवों के दीर्घ आयुष्य की बात ठीक नहीं है। राजन्य ! परलोक को, पारलौकिक पदार्थों को इन चर्म-चक्षुओं से नहीं देखा जा सकता। जो श्रमण-ब्राह्मण एकान्त
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