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________________ १९० आगम और त्रिपिटक : एक अनुशीलन [खण्ड:३ काश्यप-"राजन्य ! अपना तर्क तो बतलाओ, जिसके सहारे तुम ऐसी मान्यता पर अड़े हो।" पायासी-“मैं अपना तर्क बतला रहा है, जिसके सहारे मैं ऐसा मानता हूँ। मेरे कतिपय सुहृद् मन्त्री, कुटुम्बी जब प्राणियों की हिंसा से विरत रहते थे, चोरी आदि दूषित आचरण से दूर रहते थे, सत् सिद्धान्तों में आस्था रखते थे। कुछ समय बाद वे रुग्ण हुए। रोग असाध्य कोटि में जाने लगा। जब मैंने समझा. वे उस रोग से नहीं बचेंगे तो मैंने कहा कि कोई-कोई श्रमण-ब्राह्मण प्रतिपादन करते हैं -जो प्राणियों की हिंसा नहीं करते, चोरी नहीं करते, दुष्कृत्य नहीं करते, वे मरणोपरान्त स्वर्ग में जन्म लेते हैं, उत्तम गति प्राप्त करते हैं । आप लोग जीव-हिंसा आदि से विरत हैं। यदि उन श्रमण-ब्राह्मणों का प्रतिपादन सत्य है तो आप लोग मरकर स्वर्ग में जायेंगे, उत्तम गति प्राप्त करेंगे। यदि वैसा हो तो कर मुझसे कहें कि यह लोक भी है, परलोक भी है.....। आप लोगों में मेरी आस्था है, मैं आप लोगों का विश्वास करता हैं। आप लोग आकर जो मुझसे कहेंगे. मैं उसे सत्य मानंगा। मेरी बात सुनकर वे कहते-..'बहत अच्छा, हम आकर कहेंगे।' वे मर गये। मरणोत्तर आज तक उनमें से न कोई स्वयं मेरे पास आया और न किसी ने सन्देशवाहक द्वारा अपना सन्देश ही मुझे भेजा। काश्यप ! इस तर्क द्वारा मेरी उक्त मान्यता सुदृढ़ होती है।" काश्यप-"राजन्य मैं एक उदाहरण द्वारा तुमको समझाता हूँ। बुद्धिमान व्यक्ति उदाहरण से, उपमा से तथ्य को तुरन्त गृहीत कर लेते हैं। राजन्य ! कल्पना करो, एक मनुष्य एड़ी से चोटी तक एक मल-कूप में डूबा हुआ है। तुम अपने कर्मचारियों को आज्ञा दो कि वे उस मनुष्य को मल-कूप से बाहर निकाल दें। तुम्हारे कर्मचारी वैसा करें। फिर तुम कर्मचारियो से कहो कि उस मनुष्य की देह को बांस के टुकड़ों से अच्छी तरह रगड़-रगड़ कर मैल उतार दो. पीली मिट्टी आदि लगाकर उसे तीन बार स्वच्छ करो। तुम्हारी आज्ञानुसार वे वैसा करें, फिर तुम उनको आदेश दो कि उस मनुष्य के शरीर पर तेल की मालिश कर, स्नानोपयोगी औषधि-चूर्ण तीन बार लगाकर उसे स्नान कराओ। वे स्नान करवा दें। फिर तुम उनको कहो कि उस पुरुष के दाढ़ी मूछ की हजामत बनवा दो। वे वैसा करवाएं । तदनन्तर तुम पुनः उनको आदेश दो कि उस मनुष्य को उत्तम मालाएं पहनाओ, उसके सुगंधित पदार्थ लगाओ-उसे सुरमित करो, उसे उत्तम वस्त्र पहनाओ। वे वैसा करें। फिर तुम अपने कर्मचारियों को कहो कि उसे कोठे पर ले जाओ तथा पाँचों इन्द्रियभोगों का सेवन कराओ। वे तदनुसार करें। "राजन्य ! भलीभाँति स्नान किये हुए, उत्तम वस्त्र पहने हुए, मालाएँ धारण किये हुए, सुरभित उबटन लगाये हुए, पाँचों काम-भोगों को भोगते हुए उस मनुष्य को क्या फिर उस मल-कूप में डूबने की इच्छा होगी?" पायासी-"काश्यप ! नहीं होगी।" काश्यप--'क्यों नहीं होगी ?" पायासी-'मल-कूप अशुद्ध है, मलिन है, दुर्गन्ध से परिपूर्ण है, जुगुप्सनीय है, अमनोज्ञ है, मन के लिए अप्रीतिकर है।" काश्यप-"राजन्य ! इसी प्रकार मनुष्य-भव देवताओं के लिए मलिन है, दुर्गन्ध से आपूर्ण है, जुगुप्सनीय है, अमनोज्ञ है, मन के लिए अप्रीतिकर है। राजन्य ! सौ योजन दूर से Jain Education International 2010_05 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002623
Book TitleAgam aur Tripitak Ek Anushilan Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNagrajmuni
PublisherConcept Publishing Company
Publication Year1991
Total Pages858
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Philosophy, Conduct, & Story
File Size17 MB
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