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________________ तत्त्व : आचार : कथानुयोग ] कथानुयोग-राजा प्रदेशी : पायासी राजन्य १८६ हैं, चुगली करते हैं, कड़े वचन कहते हैं, वृथा बकवास करते हैं, दूसरों के साथ वैमनस्य रखते हैं, उनसे द्रोह करते हैं, द्वेष करते हैं तथा ऐसे असत् सिद्धान्तों में आस्था रखते हैं, वे मरकर नरक में जाते हैं, दुर्गति प्राप्त करते हैं। आप लोग प्राणियों की हिंसा, चोरी, दुराचरण आदि करते रहे हैं । यदि उन श्रमण ब्राह्मणों का कथन सत्य है तो मृत्यु के उपरान्त आप नरकगामी होंगे, दुर्गति प्राप्त करेंगे । यदि वैसा हो, आप लोग नरक में जाएं दुर्गति में पड़ें तो आकर मुझसे कहें कि लोक है, परलोक है, मरने के पश्चात् भी जीव विद्यमान रहता है, पुनर्जन्म होता है, सत्, असत् कर्मों का फल है । आप लोगों का मैं विश्वास करता हूँ। आप लोगों में मेरी श्रद्धा है। आप खुद देख कर, अनुभव कर, आकर मुझे जो बतायेंगे, मैं उसे उसी प्रकार मानूंगा। __ "वे कहते-बहुत अच्छा, हम ऐसा करेंगे। पर, मरने के पश्चात् न उन्होंने स्वयं आकर मुझे कुछ कहा और न अपने किसी संदेशवाहक को भेजकर मुझे यह कहलवाया। श्रमण काश्यप ! मेरे समक्ष यह प्रत्यक्ष कारण है, जिससे मैं अपने सिद्धान्त एवं मान्यता पर . __ काश्यप-"राजन्य ! मैं तुम्ही से एक बात पूछता हूँ। यदि तुम्हारे कर्मचारी एक चोर को, अपराधी को पकड़कर लाएं, तुम्हें दिखलाएं, कहें-इसने चोरी की है, अपराध किया है । जैसा आप उचित समझे, दण्ड दें। तब तुम यदि कहो कि एक सुदृढ़ रस्सी से इस आदमी के दोनों हाथ पीठ की ओर कसकर बाँध दो। इसका शिर मुंडवा दो। “यह अपराधी है," ऐसा घोषित करते हुए इसे एक राजमार्ग से दूसरे राजमार्ग पर, एक चतुष्पथ से दूसरे चतुष्पथ पर ले जाते हुए नगर के दक्षिणी द्वार से बाहर निकालकर दक्षिण दिशा में अवस्थित वध्य-स्थान में इसका शिर उड़ा दो। जब तुम्हारे कर्मचारी तुम्हारे आदेशानुरूप सुदृढ़ रस्सी द्वारा उसके दोनों हाथ उसकी पीठ के पीछे बाँध कर, जैसा-जैसा करने की तुमने आज्ञा दी, वैसा-वैसा कर उसे मध्य-स्थान पर ले जाएं । तब वह अपराधी यदि वधकों-जल्लादों से कहे, इस गाँव में, निगम में मेरे सुहृद्, साथी और कौटुम्बिक पुरुष निवास करते हैं, जब तक मैं उनके पास हो आऊं, उनसे मिल आऊं, तब तक आप रुकें, मुझे वैसा करने की छुट्टी दें, क्या उस अपराधी द्वारा यों कहे जाने पर भी वे वधक उसे उतनी देर के लिए छुट्टी देंगे? उसका मस्तक नहीं काटेंगे?" पायासी-काश्यप ! वधक अपराधी की बात नहीं मानेंगे। वे उसके द्वारा वैसा कहे जाते रहने पर भी उसका मस्तक उड़ा देंगे, जरा भी नहीं रुकेंगे।" ___ काश्यप-"जब चोर या अपराधी मनुष्य वधकों से इतनी-सी छटी नहीं ले सकता, इतनी देर के लिए भी वे उसे नहीं छोड़ते तो तुम्हारे सुहृद् मन्त्री, खानदान के लोग, जो प्राणियों की हिंसा आदि पाप-कृत्यो में लिप्त रहे, मृत्यु के उपरान्त जब वे नरक में चले जाते हैं, दुर्गति प्राप्त करते हैं तो वे यमों से-नरकपालों से यह कहकर कि कुछ देर तक आप रुकें, जब तक हम पायासी राजन्य के पास जाकर यह कह आएं कि यह लोक भी है, परलोक भी है, पुनर्जन्म भी है, क्या वे उनसे छुट्टी पा सकेंगे? यह स्पष्ट है, नरकपाल उन्हें कदापि छुट्टी नहीं देंगे। इससे तुम्हें ऐसा मानना चाहिए कि लोक भी है, पर लोक भी है; इत्यादि ।" पायासी- 'काश्यप ! आप चाहे जिस प्रकार कहें, मेरी समझ में आपकी बात नहीं आती। मुझे तो यही जचता है, मैं यही मानता हूँ कि लोक, परलोक आदि कुछ भी नहीं है।" Jain Education International 2010_05 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002623
Book TitleAgam aur Tripitak Ek Anushilan Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNagrajmuni
PublisherConcept Publishing Company
Publication Year1991
Total Pages858
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Philosophy, Conduct, & Story
File Size17 MB
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