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________________ आगम और त्रिपिटक : एक अनुशीलन [ खण्ड : ३ "पायासी राजन्य ने आप लोगों को यह कहलवाया है कि कुछ देर रुकें, वे भी आपके साथ कुमार काश्यप के दर्शनार्थ जायेंगे ।' ८८ यह सुनकर ब्राह्मण गृहस्थ रुक गये । पायासी राजन्य वहाँ आया और उनको साथ ले सिंसपावन में वहाँ गया, जहाँ कुमार काश्यप विराजित थे । पायासी ने कुमारकाश्यप से कुशल-क्षेम पूछा । पूछकर वह एक ओर बैठ गया । इस प्रकार और भी अनेक लोग कुमारकाश्यप को अभिवादन कर, कुशल क्षेम पूछ एक ओर बैठ गये। कई लोग कुमारकाश्यप के पास गये, उनके सम्मुख बैठ गये । कइयों ने अपने नाम एवं गोत्र का उच्चारण किया । वैसा कर एक ओर स्थित हुए। कुछ लोग खामोश – कुछ मी बोले बिना जहाँ स्थान मिला, बैठ गये । प्रश्नोत्तर एक तरफ बैठे राजन्य पायासो ने आयुष्मान् कुमार काश्यप से कहा -- श्रमण काश्यप ! मेरा ऐसा दृष्टिकोण है, सैद्धान्तिक मान्यता है - यह लोक नहीं है, परलोक भी नहीं है, न जीव मरकर जन्म लेते हैं तथा न सत्, असत् कर्मों का फल ही होता है ।" काश्यप - " मैंने अब से पूर्व ऐसे पुरुष को न तो देखा ही है और न सुना ही है, जो ऐसे सिद्धान्त मानता हो कि यह लोक भी नहीं है, परलोक भी नहीं है इत्यादि । तुम यह कैसे कहते हो ? मैं तुम्हीं से एक प्रश्न करता हूँ, जैसा उपयुक्त समझो, जवाब दो - यह चन्द्र, यह सूर्य क्या इस लोक में हैं या परलोक में हैं ? क्या ये मनुष्य हैं ? क्या देव हैं ? " पायासी ..."काश्यप ! यह चन्द्रमा तथा यह सूर्य परलोक में हैं, इस लोक में नहीं हैं, ये देव हैं, मनुष्य नहीं हैं ।" काश्यप - " राजन्य ! इस प्रकार जो तुम कह रहे हो, उससे तुम्हें स्वयं समझ लेना चाहिए कि यह लोक भी है, परलोक भी है, जीव मर कर जन्मते भी हैं, कुशल, अकुशल कर्मों का सत्, असत् फल भी है । " पायासी - "आप चाहे जैसा कहें, मेरी तो यही समझ है, यही मान्यता है, ये नहीं हैं । " काश्यप - "राजन्य ! जो तुम यह कहते हो, मानते हो, उसके आधार के रूप में तुम्हारे पास क्या कोई तर्क है ?" पायासी - "काश्यप ! हां, मेरे पास तर्क है, जिसके आधार पर मेरा यह सिद्धान्त है ।" काश्यप - "क्या तर्क है ?" पायासी - "काश्यप ! मेरे कतिपय ऐसे सुहृद्, मन्त्री तथा मेरे ही खानदान के बन्धु बान्धव थे, जो प्राणियों की हिंसा में अनुरत थे, चोरी करते थे, बुग आचरण करते थे, अनत्य- भाषण करते थे पिशुन थे – चुगली करते थे, कड़े वचन बोलते थे, निष्प्रयोजन बकवास करते थे, दूसरों से डाह करते थे, जिनके चित्त में द्वेष का भाव रहता था तथा जो असत् सिद्धान्तों में विश्वास करते थे । कुछ समय बाद वे रोग से आक्रान्त हुए, बहुत अस्वस्थ हुए। मैंने अनुमान किया, वे रोग से नहीं बचेंगे । मैं उनके पास गया और मैंने उनसे कहा कि कई श्रमण-ब्राह्मण ऐसा दृष्टिकोण रखते हैं, ऐसे सिद्धान्त में मान्यता रखते हैं कि जो प्राणियों की हिंसा करते हैं, चोरी करते हैं, बुरा आचरण करते हैं, असत्य बोलते Jain Education International 2010_05 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002623
Book TitleAgam aur Tripitak Ek Anushilan Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNagrajmuni
PublisherConcept Publishing Company
Publication Year1991
Total Pages858
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Philosophy, Conduct, & Story
File Size17 MB
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