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तत्त्व : प्राचार : कथानुयोग] कथानुयोग--राजा प्रदेशी : पायासी राजन्य १८७
पायासी राजन्य श्वेताम्बी-नरेश पायासी : मान्यताएँ
एक समय की बात है, आयुष्मान् कुमार काश्यप पाँच सौ भिक्षुओं के वृहत् समुदाय के साथ कोशल देश में विचरण करते थे। विचरण करते-करते वे कोशलों की नगरी श्वेताम्बी में आये । उसके उत्तर भाग में सिंसपावन नामक उद्यान था। वे आकर वहाँ ठहरे। तब पायासी श्वेताम्बी का शासक था। वह कोशल राज प्रसेनजित के अधीनस्थ राजन्य-मांडलिक राजा था । श्वेताम्बी का राज्य उसे कोशलराज प्रसेन जित् से राजदाय के रूप में प्राप्त था। वहाँ घनी आबादी थी। वह धन, धान्य, जल, घास, काष्ठ आदि सब साधन-सुविधामय सामग्री से यूक्त था।
राजन्य पायासी के मन में यह गलत धारणा बैठी हुई थी कि न लोक है, न परलोक है, न जीव मरकर उत्पन्न होता है और न सत्-असत् कर्मों का कोई फल ही होता है।
घमण कुमारकाश्यप
श्वेताम्बी में निवास करने वाले ब्राह्मण-गृहस्थों ने सुना-श्रमण गौतम के शिष्य श्रमण कुमारकाश्यप पांच सौ भिक्षुओं के विशाल समुदाय के साथ श्वेताम्बी में पधारे हैं, सिंसपा वन में टिके हैं । कुमार काश्यप का कल्याणमय यश सर्वत्र विश्रुत है । वे पण्डितउबुद्ध-चेता, व्यक्तचेता, ज्ञानी, मेधावी-प्रज्ञाशील, बहुश्रुत-शास्त्रवेत्ता, सत्पुरुषों के संसर्ग-साहचर्य से प्राप्त विशिष्टज्ञान-युक्त, मन की बात जानने वाले, प्रकट करने वाले, उत्कृष्ट प्रतिभा संपन्न, बोध संपन्न अर्हत् हैं। ऐसे अर्हतों का दर्शन हितप्रद होता है। यह सोचकर वे ब्राह्मण नगर से रवाना हुए। एक समूह के रूप में समवेत हो वे सिंसपावन की ओर चले । उस समय पायासी राजन्य विश्रामार्थ, टहलने हेतु राजमहल के ऊपर गया हुआ था, छत पर था। उसने ब्राह्मणों को सामूहिक रूप में उत्तर दिशा में सिंसपावन की ओर जाते हुए देखा । उसने अपने क्षत्ता-व्यक्तिगत सचिव को, जो उसके पास था, कहा"श्वेताम्बी के ये ब्राह्मण झुण्ड बनाये सिंसपावन की ओर किसलिए जा रहे हैं ?"
क्षत्ता-"राजन्य ! श्रमण गौतम के शिष्य श्रमण कुमारकाश्यप श्वेताम्बी में पधारे हैं, सिंसपावन में ठहरे हैं । उनके विपुल ज्ञान, उर्वर मेधा, प्रखर प्रतिभा का यश सब ओर फैला है। यह चर्चा है कि वे अर्हत् हैं। उन्हीं श्रमण कुमारकाश्यप के दर्शन हेतु श्वेताम्बी के ये ब्राह्मण-गृहस्थ सिंसपावन की ओर जा रहे हैं।"
पायासी- "क्षत्ता ! श्वेताम्बी के वे ब्राह्मण-गृहस्थ जहाँ हों, वहाँ जाओ। जाकर उनसे यों कहो-'पायासी राजन्य ने आप लोगों को उद्दिष्ट कर ऐसा कहा है, आप लोग कुछ ठहरें । वे भी श्रमण कुमार काश्यप के दर्शनार्थ आपके साथ चलेंगे।"
"क्षत्ता! श्रमण कुमारकाश्यप श्वेताम्बी के ब्राह्मण-गहस्थों को बाल-अज्ञान. युक्त समझकर यों कहेंगे कि यह लोक भी है, परलोक भी है, मर जाने के बाद भी जीवों का अस्तित्व रहता है, सत्, असत् कर्मों का शुभ, अशुभ फल प्राप्त होता है।
"क्षत्ता ! किन्तु, वास्तविकता यह है, न यह लोक है. न परलोक है, न मृत्यु के अनन्तर जीवों का अस्तित्व ही रहता है।"
यह सब सुनकर क्षत्ता वहाँ गया, जहाँ वे ब्राह्मण थे। उनके पास जाकर बोला
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