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________________ तत्त्व : आचार : कथानुयोग] . संपादकीय xxiii गंभीर तत्त्व को हस्तामलकवत् अनुभूत कराने में बौद्ध-वाङ्मय की अपनी अद्भुत विशेषता है। बौद्ध-वाङमय में कथामूलक साहित्य में जातकों का अत्यन्त महत्त्वपूर्ण स्थान है। जात का अर्थ जन्म लेना है। जात एवं जातक एक ही अर्थ में हैं। जात में स्वार्थिक 'क' प्रत्यय लगाने से जातक होता है । जातकों में भगवान बुद्ध के पूर्व जन्मों की कथाएं हैं। भगवान् बुद्ध ने बुद्धत्व प्राप्ति से पूर्व अनेक बार बोधिसत्त्व के रूप में जन्म लिया। बोधिसत्त्व का अभप्राय उस प्राणी से है, जिसकी आन्तरिक संबोधि जागृत है, जो बुद्धत्व-प्राप्ति हेतु प्रयत्नशील है। भगवान् बुद्ध ने अपने पूर्व-भवों में राजा, तापस, देव, सिंह, गज, अश्व, शृगाल, महिष, श्वान, मर्कट, मत्स्य, शूकर तथा वृक्ष आदि वविध रूपों में जन्म ग्रहण वि या। इन सभी योनियों में उनकी प्रवृत्ति सत्त्वोन मुख, करुणोन्मुख रही । यही सब इन कथाओं में वर्णित है । बुद्धत्व प्राप्त करने के अनन्त र भगवान् ने अपने उपदेशों के अन्तर्गत इनकी चर्चा की। वैसे प्रसंग अधिकांशतः तब बनते, जब उनको किसी समसामयिक घटना को देखकर अपने पूर्व जन्म की घटना याद आ जाती। वसे अवसरों पर वे अपने पूर्व-जन्म की घटनाओं को श्रोताओं के समक्ष उपस्थापित कर वर्तमान घटनाओं के साथ उनका संबध बिठा देते। जातक संख्या में 547 हैं । लगभग दो सहस्राब्दी पूर्व आचार्य बुद्धघोष ने पालि में ये जातक लिखे। इन पालि जातकों तथा श्रुति-परंपरा-प्रा.त कुछ अन्य बौद्ध कथानकों के आधार पर आर्यशूर नामक बौद्ध संस्कृत-विद्वान् ने जातकमाला नामक पुस्तक लिखी, जिसमें 34 जातकों को परिगृहीत किया। आर्यशर अपनी कोटि का उत्तम कवि था। दानपारमिता, शीलपारमिता, क्षान्तिपार मता, वीर्यपारमिता, ध्यानपारमिता तथा प्रज्ञापारमिता के आधार पर नीति, उत्तम आचरण, उदारता, दयालुता आदि का पालिजातकों में जो प्रतिपादन हुआ है, आर्यशूर ने जातकमाला में उसका काव्यात्मक शैली में विशद विवेचन किया। पारमिता का अर्थ श्रेष्ठतम उत्कर्ष है, जहाँ वैयक्तिक स्वार्थ तथा ईप्सा बिलकुल मिट जाती है परोपकार, परकल्याण या परसेवा सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण स्थान प्राप्त कर लेती है। दान, शील--सदाचार, क्षान्ति-क्षमाशीलता, वीर्य-शुभोत्साह, ध्यान-चैतसिक एकाग्रता तथा प्रज्ञा-सत्य का साक्षात्कार -इनको उत्तरोतर, उन्नत, विकसित करते जाना प्रत्येक सात्त्विक व्यक्ति का कर्तव्य है । इस परिपार्श्व में अष्टांगिक मार्ग, पंचशील आदि का सहज समावेश है। बौद्ध-धर्म के अनुसार यह प्राणी मात्र के उत्तरोत्तर विकास का पथ है। जातकमाला में आर्यशूर ने प्रस्तुत विषय का काव्यात्मक सौन्दर्य के साथ जोड़ते हुए जो निरूपण किया है, वह बौद्ध संस्कृत साहित्य में अपना असाधारण स्थान लिए हुए है। जैसा कि भारतवर्ष के अन्य महान् कवियों एवं लेखकों के साथ है, आर्यशूर ने अपनी कृति में अपने सम्बन्ध में कुछ भी उल्लेख नहीं किया है। सुप्रसिद्ध चीनी यात्री इत्सिग ने जो अपना यात्राविवरण लिखा है, उसके अनुसार सातवीं शताब्दी के अन्तिम भाग में भारतवर्ष में आर्यशर रचित जातकमाला का बहुत प्रचार था। विश्वविख्यात अजन्ता गुफाओं में जो भित्ति-चित्र हैं, उनमें क्षान्तिजातक, मैत्रीबलजातक, हंसजातक, रुरुजातक, शिविजात क, महाकपिजातक तथा महिषजातक आदि से सम्बद्ध दृश्य चित्रित हुए हैं । दृश्यों के परिचय हेतु उन जातकों Jain Education International 2010_05 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002623
Book TitleAgam aur Tripitak Ek Anushilan Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNagrajmuni
PublisherConcept Publishing Company
Publication Year1991
Total Pages858
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Philosophy, Conduct, & Story
File Size17 MB
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