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xxii आगम और त्रिपिटक : एक अनुशीलन'
[खण्ड : ३ ___ भारत के इस पूर्वीय अंचल में उद्बोधित विचार-चेतना तथा आचार-क्रान्ति के उपक्रमों को सम्यक् स्वायत्त करने के लिए महावीर और बुद्ध का वाङ्मय एक ऐसा साक्ष्य
जिससे हम याथार्य को अधिगत कर पाने में समर्थ हो सकते हैं। जैन आगमों तथा बौद्ध पिटकों में उद्बोधित वैसी उत्क्रान्त विचारधारा तथा उसके परिपार्श्व में अभ्युदित, विकसित एवं पल्लवित आचार-चेतना के विविध आयामों का जो साहित्यिक चित्रण हुआ है, वह सुतरां पठनीय एवं मननीय है । वहाँ जन्म, जाति, जीवनगत दैनन्दिन व्यवहार, लोकगत पारस्परिक संबंध, उत्तरदायित्व, कर्तव्य, सद्भावना, नीति, वैयक्तिक, पारिवारिक एवं सामाजिक दायित्व, मैत्री, समता, सौजन्य, सौहार्द, सौमनस्य, आर्जव, मार्दव, धर्माचरण के अन्तर्गत अहिंसा, सत्य, अस्तेय, कामवर्जन, परिग्रहवर्जन, सन्तोष, धैर्य, स्थिरता आदि पर जो विवेचन-विश्लेषण हुआ है, वह उस विचारक्रान्ति के लोक जीवन में क्रियान्वयन का रूप प्रकट करता है । निश्चय ही वह भारतीय वाङ्मय का एक ऐसा अत्यन्त महत्त्वपूर्ण, उदबोधप्रद अध्याय है, जिसे जाने बिना भारतीय संस्कृति, विचार-चेतना एवं जीवन-दर्शन का हम सही-सही स्वरूप आंक नहीं सकते।
तत्त्वदर्शन के विश्लेषण विवेचन में भारतीय वाङ्मय में दृष्टांत, रूपक, आख्यान तथा कथानक माध्यम का प्रारंभ से ही स्वीकार अपने आप में अत्यधिक महत्त्व लिए हुए है। इससे गंभीर, दुरूह तत्त्व, गहन विचार बहुत सरलतापूर्वक श्रोताओं तथा पाठकों द्वारा ग्रहण किये जा सकते हैं । उनके मन में टिक सकते हैं । भारतवर्ष के प्रायः सभी प्रमुख धर्मों की परंपराओं में इस पद्धति को स्वीकार किया गया है। ब्राह्मण-परंपरा में भी इसका स्वीकार है, श्रमण-परंपरा में भी यह विशेषरूप से परिगृहीत है।
श्रमण-संस्कृति के अन्तर्गत जैन परंपरा में, अर्धमागधी आगमों में, जो जैन धर्म के मौलिक शास्त्र हैं, आख्यानात्मक शैली को विशेष रूप से अपनाया गया है। वहां स्वीकृत चार अनुयोगों में-विषयानुरूप वर्णनक्रमों में धर्मकथानुयोग के नाम से एक अनुयोग-भाग है, जिसकी शैली में ज्ञातृधर्मकथा, उपासकदशा, अन्त कृद्दशा, अनुत रौपपातिकदशा, विपाक, औपपातिक, राजप्रश्नीय, निरयावली, कल्पावतंसिका, पुष्पिका, पुष्पचूलिका, वृष्णिदशा एवं बहुलांशत: उत्तराध्ययन आदि अनेक आगम रचित हैं। उनके अतिरिक्त द्रव्यानयोग आदि में भी यत्र-तत्र कथाओं का समावेश है। आगमों पर रचित चूणि तथा टीका साहित्य में भी वर्ण्य विषयों के विशदीकरण हेतु कथाओं का बहुलत या उपयोग हुआ है। उत्तरवर्ती काल में स्वतन्त्र रूप में भी कथात्मक साहित्य के सर्जन का क्रम गतिशील रहा, जिसके अन्तर्गत प्राकत तथा संस्कृत में समराइच्च कहा, कुवलयामाला, उपमितिभवप्रपंचकथा एवं तिलकमंजरी आदि अनेक आख्यानकों का प्रणयन हुआ। आगे चलकर विभिन्न प्रादेशिक भाषाओं में भी यह क्रम गतिशील रहा।
दूसरी ओर बौद्ध वाङ्मय में भी यह क्रम पिटककाल से ही प्राप्य है । बौद्ध वाङ्मय में तात्त्विक व्याख्यान के प्रसंग में कथाओं का बहुत सुन्दर रूप में प्रयोग हुआ है । महावीर की ज्यों लोकजीवन से अनुप्राणित होने के नाते बुद्ध यह भली-भाँति अनुभव करते थे कि जनसाधारण को तात्त्विक रहस्य हृदयंगम कराने में कथात्मक माध्यम निश्चय ही बहत उपादेय है । यही कारण है कि पालि बौद्ध-वाङ्मय आख्यानात्मक शैली में किए गये विविध विषयक विवेचन, विश्लेषण से भरा पड़ा है। बहुत छोटे-छोटे कथानकों को उपस्थापित कर गहन,
१. चरण करणानु योग, २. धर्म कथानुयोग ३. गणितानुयोग तथा ४. द्रव्यानुयोग ।
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