________________
तत्त्व: भाचार : कथानुयोग]
संपादकीय
xxi
ब्राह्मण का सर्वोपरि महत्त्व था। अतः इस चिन्तन-घारा के आधार पर विकसित, प्रमूत संस्कृति ब्राह्मण-संस्कृति के नाम से अभिहित हुई।
पूर्व भारत में जो संस्कृति उदित, विकसित और पल्लवित हुई, जिसके प्रमुख केन्द्र मगध, विदेह तथा अंग आदि क्षेत्र थे अर्थात् उत्तर बिहार तथा दक्षिण बिहार के भूभाग थे, जन्माश्रित जातिवाद, वर्णवाद, आश्रमवाद आदि में विश्वास नहीं करती थी। आभिजात्यवाद से वह विमुख थी। उसकी नींव कर्मवाद, पुरुषार्थवाद, अध्यवसाय या श्रम पर टिकी थी अर्थात श्रम पर अवलम्बित थी। वह श्रमण-संस्कृति के नाम से विश्रत हई। जन्म एवं जाति का आग्रह न होने के कारण उसमें लोकजनीनता का सहज संचार हआ अतः धर्म के क्षेत्र में वह वैचारिक तथा कामिक दोनों दृष्टियों से प्रतिबन्धशून्य रही। सिद्धान्त-निरूपण हेतु धर्मानुषिक्त भाषा के रूप में भाषा-विशेष का आग्रह भी उसमें अस्वीकृत रहा। माध्यम के रूप में उसी भाषा का स्वीकरण हुआ, जो स्वाभाविकतया उन सब लोगों की भाषा थी, जो उसके प्रसार-विस्तार के क्षेत्र में आते थे।
ईसवी सन् से लगभग पांच शताब्दी पूर्व इस भारत भूमि में समुत्पन्न भगवान् महावीर तथा भगवान् बुद्ध श्रमण-संस्कृति के, जो उनसे पूर्व काल से ही अस्तित्व में थी, उन्नायक एवं अभिनव प्राण प्रतिष्ठापक हुए। उन्होंने जन-जन के लिए जीवन-दर्शन का जो स्वरूप विख्यात किया, प्रस्तुत किया, वह समग्र मानव-जाति के लिए था। उसमें समता तथा निर्वैषम्य के आदर्श समादृत थे। वाक्-वैशिष्ट्य के स्थान पर उसमें कर्म-पावित्र्य पर विशेष बल दिया गया था। महावीर और बुद्ध ने धर्म का विशाल राजमार्ग सबके लिए खोल दिया। “एकैव मानुषी जातिरन्यत् सर्व प्रपंचनम्" समग्र मानव जाति एक है, उसमें भेद की परिकल्पना एक प्रपंच है-विडम्बना है, सचाई नहीं है, यह सार्वजनिक निर्घोष उन्होंने चतुर्दिक् प्रसारित किया।
उनके विचारों को सब कोई बिना किसी बिचौलिये व्याख्याकार के, समझ सकें एतदर्थ उन्होंने अपने उद्गार लोकमाषाओं में प्रकट किए । महावीर के उपदेश अर्धमागधी प्राकृत में हैं तथा बुद्ध के उपदेश मागधी प्राकृत में हैं, जो पालि के नाम से प्रसिद्ध है।
अपनी-अपनी दृष्टि से साधनानिष्ठ, तपस्तप्त, परिष्कृत जीवन की अनेक रूप में व्याख्या करने वाले विचारकों का महावीर और बुद्ध के युग में एक प्रकार से जमघट था। यद्यपि उनके विचार-निरूपक स्वतन्त्र ग्रन्थ आज हमको उपलब्ध नहीं हैं, किन्तु, जैन आगमों तथा बौद्ध पिटकों में यत्र-तत्र उनके सम्बन्ध में जो छिटपुट वर्णन प्राप्त हैं, उनसे सूचित होता है कि कार्मिक जीवन में उत्क्रांति की दृष्टि से तब चिन्तनशील पुरुषों में एक रुझान थी। यद्यपि जो छिटपुट विचार हमें प्राप्त होते हैं, उनसे ऐसा प्रतिभासित होता है कि दार्शनिक दृष्टि से वे विचार सम्यक् परिपक्व नहीं थे, बहुलतया वे एकांगिता लिए हुए थे, किन्तु, इतना तो स्पष्ट है कि एक स्वतन्त्र कर्म-चेतना, धर्म-उद्बोधना, विचारक्रान्ति के स्फुलिंग उनमें अवश्य थे। मंखलिगौशाल, पूरणकश्यप, अजितके शकम्बल तथा पकुधकच्चायन, संजयवेलठ्ठिपुत्त आदि ऐसे ही धर्म-प्रतिपादक विशिष्ट पुरुष थे। अनेक अच्छाइयों के बावजूद एक दुर्बलता मानव में चिरकाल से रही है। वह अहंवाद से छूट नहीं पाता। यही कारण है, इन आचार्यों ने भी अपने को महावीर और बुद्ध की ज्यों तीर्थंकर घोषित किया। जो भी हो, इतना तो स्पष्ट है कि परंपरा-विशेष के साथ जड़तापूर्ण बद्धता से ऊपर उठकर चिन्तन करने की एक आन्तरिक प्रेरणा और एक ऊर्जा उनमें थी।
Jain Education International 2010_05
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org