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संपादकीय
जीवन के दो पक्ष हैं-बाह्य तथा आन्तरिक । बाह्य पक्ष का सम्बन्ध भौतिक जीवन से है, जिसके अन्तर्गत खानपान, रहन-सहन, परिधान जैसे दैनन्दिन व्यावहारिक कार्य आते हैं। ये वे कार्य हैं, जिनकी संलग्नता मानव कहे जाने वाले प्रत्येक प्राणी के साथ है। अधिक व्यापकता में जाएं तो ऐसा भी कह सकते हैं, इनका संबध प्राणीमात्र के साथ है। आन्तरिक जीवन का अभिप्राय जीवन के आध्यात्मिक पक्ष से है, जिसके अन्तर्गत आत्मा, पुण्य, पाप, सदाचार, दुराचार कर्तव्य, अकर्तव्य, साधना, तपश्चरण, सेवा आदि का समावेश है। ये जीवन के अन्तः-स्वरूप से सम्बद्ध हैं, अत्यन्त महत्त्वपूर्ण हैं।
जगत् में सामान्यतः जीवन के बाह्य पक्ष पर अपेक्षाकृत अधिक सोचा जाता रहा है, किन्तु, भारतवर्ष की यह अनुपम विशेषता रही है, वहां जीवन के बाह्य पक्ष के साथ-साथ
क्ष पर भी बहुत गहराई से चिन्तन मनन होता रहा है। यह क्रम शताब्दियों से .सहस्राब्दियों पूर्व से चलता आ रहा है। इस धारा के चिन्तकों ने जीवन के बाह्य पक्ष के साथ-साथ आन्तरिक पक्ष के विकास को अत्यन्त महत्त्वपूर्ण स्वीकार किया, जिसके बिना जीवन के केवल बाह्य पक्ष का उन्नयन उस हृष्ट-पुष्ट शरीर जैसा है, जिसमें से आत्मा निकल गई है, जो मृत है।
जीवन के आभ्यन्तर पक्ष, जिसका संबंध प्रमुखतया धर्म एव दर्शन से होता है, के सन्दर्भ में मुख्यरूप में भारत में दो धाराएं प्रवहणशील रही हैं । एक धारा विशेषतः भारत के पश्चिमी भाग में पनपी तथा दूसरी धारा का अभ्युदय और विकास भारत के पूर्वी भाग में हुआ। पश्चिमी भाग में जो वैचारिक उद्बोधना हुई, वह मुख्य रूप से आभिजात्यवादी विचारों की पृष्ठभूमि पर टिकी थी। इसे सरलरूप में प्रकट करें तो कहा जा सकता है, वर्ण, आश्रम, जाति आदि के आधार पर वहाँ मुख्यरूप में उत्कर्ष का स्वीकार था। यद्यपि आचारगत तथा कर्मगत उच्चता का भी वहाँ परिग्रहण तो हुआ, किन्तु, अत्यन्त गौण रूप में । जो जन्मना ब्राह्मण है, ब्राह्मणोचित गुणों एवं कर्मों का सर्वथा अभाव होने पर भी वहाँ ब्राह्मणत्व से शून्य नहीं कहा गया। इतना ही नहीं, ब्राह्मणत्व के नाते पूजा एवं सम्मान पाने के अधिकारित्व से भी उसे वंचित नहीं माना गया। इस विचारधारा के आधार पर एक ओर किसी विषय विशेष में विशिष्ट योग्यता-प्राप्ति 'Specialisation' के रूप में कुछ लाभ तो हआ, किन्तु, कर्म और गुण के महत्त्व के स्वीकार में वैसा उत्साह नहीं रहा, जैसा अभीप्सित था। इसके परिपावं में अनेक रूपों में संकीर्णता भी बहुत फैली, जिसका दुष्परिणाम वैयक्तिक एवं सामाजिक विषमता के रूप में समाज को बहुत भुगतना पड़ा।
पश्चिम भारत में पनपी यह संस्कृति वैदिक विचार-दर्शन पर आधारित थी, जहाँ
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