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________________ तत्त्व : प्राचार : कथानुयोग] कथानुयोग-राजा प्रदेशी : पायासी राजन्य १८५ खाना-पीना करते हैं, देते हैं, लेते हैं। वह स्थान बड़ा आकर्षक रोचक और सुन्दर प्रतीत होता है, पर, जब धान्य निकाल लिया जाता है, किसान उसे अपने घरों में जमा कर लेते हैं, लोगों का आवागमन बंद हो जाता है तो वह स्थान बड़ा अकाम्य, डरावना और बेसुहावना लगने लगता है। "राजा प्रदेशी ! तुम्हें इन उदाहरणों से यह समझना है, तुम धार्मिक दृष्टि से रमणीय, कमनीय होकर समयान्तर पर उससे विमुख होकर अरमणीय, अकमनीय मत बनना। साथ-ही-साथ दान देने आदि के रूप में तुम्हारा जो अब तक रमणीयता रही है, उसको चालू रखना; इस प्रकार सदा रमणीय अभिलषणीय तथा शोभनीय बने रहना।" राजा प्रदेशी ने केशीकुमार श्रमण से निवेदन किया-"भगवन् ! आपने जो मुझे समझाया है, उससे मैं अन्त:प्रेरित हुआ हूँ, मैं रमणीय होकर फिर अरमणीय नहीं बनूंगा। जानकारी हेतु निवेदन कर दूं-मैंने यह चिन्तन किया है, मैं सेयविया नगरी आदि अपने राज्य के सात हजार गाँवों की—इनकी आय को चार भागों में बांटूंगा। उनमें से एक भाग राज्य की व्यवस्था, रक्षा, सेना और वाहन के कार्य में व्यय करूंगा, एक भाग प्रजा के पालन समय पर सहायता आदि की दृष्टि से कोष्ठागार में अन्न आदि के हेतु सुरक्षित रखूगा, एक भाग अपने रनवास के निर्वाह तथा सुरक्षा के लिए खर्च करूगा तथा बाकी के एक भाग से एक विशाल कटागारशाला का निर्माण कराऊँगा । वहां व्यवस्था एवं सेवा हेतु बहुत से मनुष्यों को भोजन, वेतन तथा दैनिक वृत्ति आदि पर रखूगा। वहाँ प्रति दिन प्रचुर मात्रा में खाद्य, पेय आदि पदार्थ तैयार कराऊँगा, जिससे श्रमण, माहण, भिक्षु, यात्री, पथिक; आदि सभी का आतिथ्य करूंगा, उन्हें भोजन कराऊंगा, आहार-पानी दूंगा तथा साधना की दृष्टि से मैं शील-व्रत, गुण-व्रत आदि का पालन करता हुआ त्याग प्रत्याख्यानमय जीवन जीऊँगा। यह कहकर राजा प्रदेशी अपने महल में लौट आया। उसने जैसा चिन्तन किया था उसके अनुसार अपने राज्य की सुन्दर, समीचीन व्यवस्था कर दी। वह धार्मिक प्राचार तथा नियम-पूर्वक रहने लगा। अवसान रानी सूर्यकांता ने देखा कि राजा जब से श्रमणोपासक बना है, उसके जीवन में एक परिवर्तन आ गया है। वह राज्य में, अन्तःपुर में, मुझ में तथा जनपद में कोई रुचि नहीं लेता है। वह इनसे विमुख और उदासीन रहता है। रानी को यह अच्छा नहीं लगा। वह संसार में आसक्त थी ; इसलिए उसने सोचा कि शास्त्र-प्रयोग, अग्नि-प्रयोग, मंत्र-प्रयोग या विष-प्रयोग द्वारा राजा की हत्या करवा दूं, युवराज सूर्यकान्त को राज्यासीन करा दूं; इस प्रकार राज्य-वैभव तथा राज्य-सत्ता का भोग करू राज्यशासन करू आनन्द-पूर्वक रहूँ। उसने युवराज सूर्यकान्त कुमार को बुलाया तथा जैसा उसने सोचा था, उसे बताया। सूर्यकान्त कुमार ने अपनी माँ की बात का समर्थन नहीं किया, उसे आदर नहीं दिया, उस ओर ध्यान नहीं दिया। वह सुनकर शांत तथा मौन रहा। रानी सूर्यकान्ता ने सोचा कुमार सहमत नहीं हुआ है, कहीं वह राजा के समक्ष यह भेद न खोल दे, अतः रानी राजा की शीघ्र हत्या करने की ताक में रहने लगी। एक दिन उसको अनुकूल अवसर मिला। उसने राजा के खाने-पीने के पदार्थों में Jain Education International 2010_05 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002623
Book TitleAgam aur Tripitak Ek Anushilan Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNagrajmuni
PublisherConcept Publishing Company
Publication Year1991
Total Pages858
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Philosophy, Conduct, & Story
File Size17 MB
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