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________________ तत्त्व : प्राचार : कथानुयोग] कथानुयोग-राजा प्रदेशी : पायासी राजन्य १८३ भेड़ें लीं । बड़े-बड़े पाठ मंजिले भवन बनवाये । वे बड़े सुख से रहते, स्नान आदि नित्य-कर्म कर उत्तम महलों के ऊपरी भाग में बैठे विविध वाद्यों के स्वर, ताल के साथ कला, निपुण सुन्दर युवतियों द्वारा किये जाते नृत्य-गान युक्त बत्तीस प्रकार के नाटक देखते, मन बहलाते, प्रसन्न रहते। वह लोह-वाहक पुरुष भी लोहे का गट्ठर लिए नगर में पहुँचा । लोहा बेचा। बहुत थोड़ा धन मिला। उसने अपने साथियों को जब अपने-अपने उत्तम महलों में अत्यन्त सुखोपभोग के साथ रहते हुए देखा तो वह मन-ही-मन कहने लगा-"मैं कितना अभागा, पुण्यहीन तथा अधन्य हूं। यदि मैं अपने इन हितैषी साथियों की बात मान लेता तो मैं भी इनकी तरह अत्यधिक सुख-सुविधाओं के साथ अपना जीवन व्यतीत करता।" केशीकुमार श्रमण बोला-"प्रदेशी ! मेरे कहने का यही अभिप्राय है कि यदि तुम अपने दुराग्रह का त्याग नहीं करोगे तो तुम्हें उस लोहवाहक दुराग्रही बनिये की तरह पछताना पड़ेगा।" __ केशीकुमाकर श्रमण द्वारा इस तरह विविध रूप में समझाये जाने पर राजा प्रदेशी को सम्यक्-तत्त्व-बोध प्राप्त हुआ । उसने केशीकुमार श्रमण को वन्दन-नमन किया, उसने निवेदन किया-"भगवन् ! मैं वैसा नहीं करूंगा, जिससे मुझे उस लोहवाहक बनिये की ज्यों बाद में पछताना पड़े । देवानुप्रिय ! मैं आपसे केवलिभाषित धर्म-तत्त्व सुनना चाहता हूं।" केशीकुमार श्रमण ने प्रदेशी की जिज्ञासा देखकर धर्मोपदेश दिया, उसे श्रावक-धर्म से अवगत कराया। राजा प्रदेशी ने श्रावक-धर्म स्वीकार किया और वह सेयविया नगरी की ओर प्रस्थान करने को उद्यत हुआ। ___ उसे गमनोद्यत देखकर केशीकुमार श्रमण बोले-“राजन् ! जानते हो, प्राचार्य कितने प्रकार के होते हैं ?" प्रदेशी ने कहा-"भगवन् ! जानता हूं, प्राचार्य तीन प्रकार के होते हैं- १. कलाचार्य. २. शिल्पाचार्य तथा ३. धर्माचार्य ।" केशीकुमार श्रमण बोले-"प्रदेशी ! तुम यह भी जानते हो कि इन तीन प्रकार के प्राचार्यों में किस-किस की कैसी विनय-प्रतिपत्ति-सेवा-सत्कार करना चाहिए।" प्रदेशी ने कहा-"हाँ भगवन् ! मैं जानता हूं। शरीर पर चन्दन आदि सुगन्धित पदार्थों के लेप, मालिश, स्नान, पुष्प, वस्त्र, आभूषण आदि द्वारा कलाचार्य एवं शिल्पाचार्य का सेवा-सत्कार करना चाहिए । उनको सम्मान पूर्वक भोजन कराना चाहिए तथा उनकी जीविका हेतु ऐसी व्यवस्था करनी चाहिए, जिससे उनका तथा उनकी आगे की पीढ़ियों का सुखपूर्वक जीवन-निर्वाह होता रहे। धर्माचार्य के दर्शन का अवसर जहाँ भी प्राप्त हो, उनको श्रद्धा और भक्ति-पूर्वक वन्दन-नमन करना चाहिए, उन्का आदर-सम्मान करना चाहिए, उन्हें कल्याण, मंगल, देव एवं ज्ञान-रूप मानते हुए उनकी पर्युपासना करनी चाहिए, उन्हें अशन, पान आदि से प्रतिलाभित करना जाहिए।" __ केशीकुमार श्रमण बोले-“राजन् ! तुम इस तरह विनय-प्रतिपत्ति का ज्ञान रखते हुए भी अब तक मेरे प्रति जो तुम्हारी ओर से विपरीत व्यवहार हुआ है, उसके लिए तुमने मुझसे क्षमा याचना तक नहीं की और अपनी नगरी की ओर गमनोद्यत हो गये।" Jain Education International 2010_05 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002623
Book TitleAgam aur Tripitak Ek Anushilan Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNagrajmuni
PublisherConcept Publishing Company
Publication Year1991
Total Pages858
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Philosophy, Conduct, & Story
File Size17 MB
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