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________________ १८२ आगम और त्रिपिटक : एक अनुशीलन [खण्ड : ३ उपरान्त मेरे पिता की भी यह मान्यता थी। पिता के बाद मेरी भी यही मान्यता रही है। इस प्रकार अनेक पीढ़ियों से, कुल-परंपरा से चली आती अपनी मान्यता को मैं कैसे छोड़ केशीकुमार श्रमण ने कहा-"प्रदेशी ! तुम अथोहादक-लोहे का भार उठाने वाले लौह-वणिक की तरह बाद में पश्चात्ताप करना पड़े, ऐसे मत बनो।" प्रदेशी बोला-"भगवन् ! वह लौह-वणिक कौन था और उसे क्यों पश्चात्ताप करना पड़ा?" ___ "सुनो प्रदेशी ! अर्थार्थी-धन के इच्छुक, अर्थगवेषी-धन की खोज करने वाले, लुब्धक-धन के लोभी, अर्थकांक्षी-धन की आकांक्षा रखने वाले, अर्थपिपासित-धन की प्यास या लिप्सा रखने वाले, कुछ पुरुष धनार्जन करने के लिए विपुल विक्रेय पदार्थ और साथ में खाने-पीने के पदार्थ लिए हुए एक गहन, भयानक, खतरों से पूर्ण, बहुत लम्बे मार्ग वाले वन में प्रविष्ट हुए । जब वे उस घोर वन में कुछ आगे बढ़े तो उन्होंने एक बहुत बड़ी लोहे की खान देखी। वहां लोहा खूब फैला था, इधर-उधर बिखराया था। उस खान को देखकर वे हृष्ट, तुष्ट और प्रसन्न होकर आपस में कहने लगे-“यह लोहा हमारे लिए बहुत इष्ट और उपयोगी है, इसलिए हम इसके गट्ठर बाँध लें।" यह सबको उचित लगा। सबने लोहे के गट्ठर बांध लिये । उस जंगल में आगे बढ़ते गये। ___ आगे बढ़ते-बढ़ते उन्होंने निर्जन वन में शीशे की एक बहुत बड़ी खान देखी, जो शीशे से आपूर्ण थी। आपस में उन्होंने कहा-"हमें शीशा इकट्ठा कर लेना उचित है। थोड़े से शीशे के बदले में हम बहुत लोहा ले सकते हैं। इसलिए हम लोहे के गट्ठर खाली कर शीशे के गट्टर बाँध लें।" यों उन्होंने परस्पर विचार कर वैसा ही किया। लोहा छोड़ दिया, शीशा बाँध लिया, किन्तु, इन में से एक पुरुष ऐसा था, लोहे को छोड़कर शीशे का का गट्ठर बाँधने को राजी नहीं हुआ। तब दूसरे साथियों ने अपने साथी से कहा-"लोहे की अपेक्षा शीशा लेना अधिक उत्तम है; कयोंकि हमें थोड़े से शीशे के बदले बहुत-सा लोहा मिल सकता है। इसलिए भाई! इस लोहे को छोड़ दो, शीशे का गट्ठर बाँध लो।" वह पुरुष बोला-"भाइयो ! मैं इस लोहे के गदर को बहुत दूर से लादे पा रहा हूं। मैंने यह गट्ठर कसकर बाँधा है, बड़ा मजबूत बाँधा है, बड़ा गाढ़ा बाँधा है ; इसलिए मैं इसे छोड़कर शीशे का गट्ठर नहीं बाँध सकता।" दूसरे साथियों ने उस व्यक्ति को बहुत समझाया, किन्तु, वह नहीं माना। वे प्रागे बढ़ते गये । आगे क्रमशः ताँबे की, चांदी की, सोने की, रत्नों की और हीरों की खानें मिलीं। जैसे-जैसे अधिक मूल्य वाली वस्तुएँ प्राप्त होती गई वैसे-वैसे वे पहले की कम मूल्य की वस्तुओं को छोड़ते गये तथा अधिक मूल्य की वस्तुओं को बाँधते गये। सभी खानों पर उन्होंने अपने उस जिद्दी साथी को बहुत समझाया, पर, उसका जिद्द छुड़ाने में वे सफल नहीं फिर सभी व्यक्ति अपने-अपने जनपद में, नगर में आये । उन्होंने वहाँ पर हीरे बेचे । बेचने से जो धन प्राप्त हुआ, उससे उन्होंने अनेक नौकर-नौकरानियाँ रखीं, गाय-मैसें और ____Jain Education International 2010_05 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002623
Book TitleAgam aur Tripitak Ek Anushilan Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNagrajmuni
PublisherConcept Publishing Company
Publication Year1991
Total Pages858
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Philosophy, Conduct, & Story
File Size17 MB
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