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________________ तत्त्व : प्राचार : कथानुयोग] कथानुयोग : राजा प्रदेशी : पायासी राजन्य १८१ ६. शब्द, ७. गंध, ८. वायु, ६. यह जिन-सर्व कर्म क्षयकारी होगा या नहीं तथा १०. यह सर्व दुःखों का अन्त करेगा या नहीं। "केवल ज्ञान, केवल दर्शन धारण करने वाले ग्रहत्, जिन या केवली भगवान् ही इन दश बातों को समस्त भावों या पर्यायों सहित जानते हैं; देखते हैं इसलिए हे प्रदेशी। जीव को शरीर से पृथक् देखा नहीं जा सकता । अतः तुम यह विश्वास करो कि जीव और शरीर भिन्न-भिन्न हैं।" ___ प्रदेशी राजा ने केशीकुमार श्रमण से कहा-“भगवन् ! क्या हाथी का जीव और कुन्यू का जीव एक जैसा है ?" केशी स्वामी बोले-"हाँ, प्रदेशी ! एक जैसे हैं, समान प्रदेश युक्त हैं।" प्रदेशी ने कहा-"भगवन् ! हाथी से कुन्यू अल्प-कर्म, अल्प-आयुष्य, अल्प-क्रिया, अल्प प्रास्रव-युक्त है । इस प्रकार कुन्यू का आहार, नीहार श्वासोच्छवास, ऋद्धि-शारीरिक शक्ति, द्युति-तेज आदि भी अल्प हैं । कुन्यू से हाथी के ये सब अधिक हैं।" केशीकुमार श्रमण बोले-"प्रदेशी ! ऐसा ही है । हाथी से कुन्यू अल्प-कर्म, अल्पक्रिया, और कून्यू से हाथी महाकर्म, महापास्रव आदि युक्त है।" प्रदेशी बोला-“भगवन् ! तब हाथी और कून्यू का जीव समान-परिणाम युक्त कैसे हो सकता है ?" केशीकुमार श्रमण ने कहा-"प्रदेशी ! जैसे कोई एक विशाल कूटागर-पर्वत शिखर के सदृश भवन हो, कोई एक व्यक्ति अग्नि और दीपक के साथ उस भवन में प्रवेश कर उसके ठीक बीच के भाग में खड़ा हो जाए, उसके बाद उस भवन के सभी दरवाजों के किवाड़ों को भली-भाँति सटाकर बन्द कर दे ताकि उसमें जरा भी छेद' न रहे । फिर वह पुरुष उस भवन के बीचोंबीच उस दीपक को जलाये । वह दीपक भवन के भीतरी भाग को प्रकाशमय, उद्योतमय, तापमय तथा प्रभामय बनाता है, बाहरी भाग को नहीं। यदि वह पुरुष उस दीपक को एक बड़े पिटारे से ढक दे तो वह दीपक उस भवन के भीतरी भाग को प्रकाशित करेगा, बाहरी माग को नहीं। इसी प्रकार गोकिलिंज-गाय के खाने के लिए घास रखने का पात्र, पच्छिका पिटक-पिटारी, गंडमाणिका-अनाज नापने का पात्र विशेष, आढ़क-चार सेर अनाज नापने का पात्र, इसी प्रकार अर्धाढ़क, प्रस्थक, अर्धप्रस्थक, कुलव, अर्धकुलव, चतुर्भागिका, अष्ट भागिका, द्वात्रिंशिका, चतु: षष्टिका अथवा दिप-चम्पका--दीपक के ढक्कन से ढ़के तो वह दीपक उन सबके भीतरी भागों को ही प्रकाशित करेगा, बाहरी भागों को नहीं । "इसी प्रकार हे प्रदेशी ! पूर्व जन्म में उपार्जित कर्मों के कारण जीव को छोटा या बड़ा जैसा भी शरीर प्राप्त होता है, उसी के अनुसार प्रात्म-प्रदेशों को संकुचित तथा विस्तृत करने के अपने स्वभाव के कारण वह जीव उस शरीर को अपने असंख्यात प्रदेशों द्वारा व्याप्त कर लेता है। अतएव हे प्रदेशी ! तुम इस बात में श्रद्धा करो कि जीव पृथक् है और . शरीर पृथक् है, जीव शरीर नहीं है और शरीर जीव नहीं है।" तदनन्तर प्रदेशी राजा ने केशीकुमार श्रमण से कहा-“भगवन् ! आपने जो बताया वह ठीक है, पर, मेरे पितामह की यह मान्यता थी कि जीव और शरीर भिन्न-भिन्न नहीं हैं ।, जो जीव है, वह शरीर है तथा जो शरीर है, वही जीव है। मेरे पितामह के मरण के Jain Education International 2010_05 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002623
Book TitleAgam aur Tripitak Ek Anushilan Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNagrajmuni
PublisherConcept Publishing Company
Publication Year1991
Total Pages858
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Philosophy, Conduct, & Story
File Size17 MB
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