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तत्त्व : प्राचार : कथानुयोग] कथानुयोग-राजा प्रदेशी : पायासी राजन्य
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प्राग की चिंगारी प्रकट की, फिर उसे फूंक देकर सुलगाया प्राग तैयार हो गई। उसने अपने साथियों के लिए भोजन तैयार कर लिया।
इतने में उसके साथी स्नान आदि से निवृत्त होकर वापस आ गये। उस पुरुष ने उन सबको बहुत अच्छा, स्वादिष्ट भोजन कराया। भोजन करने के बाद आचमन आदि करके उन्होंने अपने पहले साथी से कहा-"तुम जड़, मूर्ख, निर्बुद्धि और फूहड़ हो, तुमने कहीं कुछ सीखा ही नहीं, जो तुमने काठ के टुकड़ों में आग को देखना चाहा।"
___“प्रदेशी! तुम्हारी भी प्रकृति इसी प्रकार की है। तुम उस लकड़हारे से भी अधिक मूर्ख हो, जो शरीर के टुकड़े-टुकड़े कर उसमें जीव देखना चाहते हो।"
केशी स्वामी की बात सुनकर राजा ने कहा-"भगवन्! आप अवसरवेत्ता, चतुर, बुद्धियुक्त, कर्तव्य-अकर्तव्य का भेद समझने वाले, विनीत, विशिष्ट, ज्ञानी, उपदेशलब्ध-गुरु से उत्तम शिक्षा प्राप्त किये हुए हैं, इस विशाल परिषद् के बीच आपने मेरे प्रति कठोर, आक्रोशपूर्ण शब्दों का प्रयोग किया, मेरी भत्र्सना की, अनादर किया, अवहेलनापूर्ण शब्दों से मुझे प्रताड़ित किया, धमकाया, क्या आपके लिए यह उचित है ?"
प्रदेशी राजा द्वारा दिये गये इस उलाहने को सुनकर केशीकुमार श्रमण ने उसे कहा-"प्रदेशी! क्या जानते हो परिषदें कितने प्रकार की बतलाई गई हैं ?"
प्रदेशी बोला- "हाँ जानता हूं, वे चार प्रकार की कही गई हैं - (१) क्षत्रियपरिषद्, (२) गाथापति-परिषद् (३) ब्राह्मण परिषद् और (४) ऋषि-परिषद् ।”
केशीकुमार श्रमण ने कहा-“प्रदेशी! तुम्हें यह भी मालूम है, इन चार परिषदों के अपराधियों को क्या दण्ड दिया जाता है ?"
प्रदेशी बोला- "हाँ जनता हूं। जो क्षत्रिय-परिषद् का अपराध करता है, तिरस्कार करता है, या तो उसके हाथ काट दिये जाते हैं या पैर काट दिये जाते हैं या मस्तक काट दिया जाता है या उसे शूली पर चढ़ा दिया जाता है। जो गाथापति-परिषद् का अपराध करता है, उसे घास या वृक्ष के पत्तों या पुराल से लपेट कर आग में झोंक दिया जाता हैं। जो ब्राह्मण-परिषद् का अपराध करता है, उसे अनिष्ट, क्रोधपूर्ण, अप्रिय तथा अमनोज्ञ शब्दों से उलाहना देकर प्राग में तपाये गये लोहे से कुंडिका-चिह्न या कुत्ते के चिह्न से लांछित कर दिया जाता है या उसे देश से निर्वासित कर दिया जाता है तथा जो ऋषि-परिषद् का अपराध करता है, उसे न अति अनिष्ट, न अति क्रोधपूर्ण तथा न अति अप्रिय, न अति अमनोज्ञ शब्दों द्वारा उलाहना दिया जाता है।
"प्रदेशी! तुम इस प्रकार की दण्ड-नीति जानते हो, फिर तुम मेरे प्रति विपरीत, दुःखजनक विरुद्ध व्यवहार करते हो।"
__ प्रदेशी राजा बोला- "भगवन् ! बात ऐसी है, जब मेरा आपसे पहले पहल वार्तालाप हुआ, तब मेरे मन में ऐसा विचार आया कि इस पुरुष से मैं जितनी विपरीत बात करूंगा, विपरीत व्यवहार करूगा, उतनी ही ये विशद व्याख्या करेंगे, उतना ही मैं अधिक तत्त्व जानूंगा, अधिक ज्ञान प्राप्त करूगा, सम्यक्त्व को समझंगा, चरित्र को समझूगा, जीव के स्वरूप को समझंगा । इसी कारण मैंने आपके प्रति अत्यन्त विपरीत और विरुद्ध व्यवहार किया।"
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