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________________ प्रागम और त्रिपिटक : एक अनुशीलन [ खण्ड : ३ से देखा, तो भी मुझे जीव दिखाई नहीं दिया । तब मैंने उसके तीन, चार—यों श्रागे बढ़तेबढ़ते अनेक टुकड़े कर दिये। तब भी मुझे जीव दिखाई नहीं दिया । भगवन् ! यदि उस पुरुष 'के इतने टुकड़े करने पर कहीं जीव दिखाई देता तो मैं यह विश्वास कर लेता कि जीव अन्य है तथा शरीर अन्य है, पर जब मैंने उसके इतने टुकड़ों में भी कहीं जीव को नहीं देखा, तब मेरी यह मान्यता मुझे सही लगती है कि जीव और शरीर भिन्न-भिन्न नहीं हैं ।" १७८ प्रदेशी राजा के इस कथन को सुनने के बाद केशीकुमार श्रमरण ने कहा - " हे प्रदेशी ! तुम मुझे उस दीन-हीन लकड़हारे से भी अधिक मूर्ख प्रतीत होते हो ।" - "भगवन् ! वह कौन दीन-हीन लकड़ाहारा था ?" प्रदेशी - केशीकुमार - "प्रदेशी ! वन में रहने वाले तथा वन से आजीविका उपार्जन करने वाले कुछ व्यक्ति आग और अंगीठी के साथ लकड़ियों के वन में प्रविष्ट हुए । प्रविष्ट होने के बाद उन पुरुषों ने कुछ दूर जाने पर अपने एक साथी से कहा- हम जंगल में जा रहे हैं, तुम यहां अंगठी में से आग लेकर हमारे लिए भोजन तैयार करना । यदि अंगीठी में आग बुझ जाये तो लकड़ी से अग्नि उत्पन्न कर भोजन बना लेना । यों कहकर उन साथियों के चले जाने के बाद पीछे रहे व्यक्ति ने सोचा - शीघ्र उनके लिए भोजन बना लूँ। ऐसा सोचकर वह अंगीठी के पास आया । अंगीठी की आग बुझ गई थी । वह पुरुष जहाँ लकड़ी पड़ी थी, वहाँ प्राया उसको चारों ओर से देखा, किन्तु, कहीं भी उसे अग्नि दृष्टिगोचर नहीं हुई । तब उसने कुल्हाड़ों से उस लकड़ी के दो टुकड़े कर डाले । उसे अच्छी तरह देखा, किन्तु, कहीं भी आग दिखाई नहीं दी । फिर उसने उसके तीन टुकड़े किये, चार टुकड़े किये, आगे टुकड़ करता गया, अनेक टुकड़े किये, उन्हें देखता गया, किन्तु, देखने पर उहीं भी आग नहीं दिखाई दी । इस प्रकार अनेकों टुकड़े करने पर भी जब किसी में भी अग्नि दिखाई नहीं दी तो वह बहुत उदास, खिन्न, श्रान्त और दुःखित हो गया । कुल्हाड़ी को एक तरफ रख दिया । कमर खोली और बोला- मैं अपने साथियों के लिए भोजन नहीं पका सका । इस विचार से उसका मन चिन्तित एवं व्यथित हुआ । वह हथेली पर अपना मुँह रखे जमीन पर दृष्टि गड़ाये आर्त-ध्यान पूर्वक शोक में डूब गया । लकड़ियाँ काट लेने के बाद उसके साथी वहाँ आये । उन्होंने अपने इस साथी को निराश, दुःखित और चिन्तित देखा । उन्होंने उससे पूछा - " देवानुप्रिय ! तुम निराश, दुःखित और चिन्तित क्यों हो ?" तब उस पुरुष ने कहा- " आप लोगों ने मुझे भोजन बनाने के लिए कहा था, अंगीठी में आग बुझ गयी थी । काठ से आग निकालने के लिए मैंने उसे अच्छी तरह देखा, आग दिखाई नहीं दी। फिर मैंने कुल्हाड़ी से उस काठ के दो टुकड़े किये, ग्राग नहीं दीखी। और भी तीन, चार उत्तरोत्तर अनेक टुकड़े किये, पर, किसी में भी आग नहीं पा सका; अतः आपके लिए खाना नहीं बना सका, इसलिए मैं निराश, दुःखित, चिन्तित और शोकान्वित हूं।" उनमें एक पुरुष बहुत चतुर और योग्य था । उसने अपने साथियों से कहा कि आप लोग स्नान आदि नित्य कर्म कर शीघ्र आयें, मैं आप लोगों के लिए भोजन तैयार कर रहा हूं। यह कहकर उसने कमर कसी, कुल्हाड़ी ली। सर बनाया, सर से अरणी काठ को रगड़ा । Jain Education International 2010_05 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002623
Book TitleAgam aur Tripitak Ek Anushilan Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNagrajmuni
PublisherConcept Publishing Company
Publication Year1991
Total Pages858
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Philosophy, Conduct, & Story
File Size17 MB
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