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तत्त्व : प्राचार : कथानुयोग] कथानुयोग-राजा प्रदेशी : पायासी राजन्य
कमजोर और घुन लगे टोकरे से बहुत वजनी लोहे को ले जाने में समर्थ होता है ?"
प्रदेशी बोला-"वह समर्थ नहीं होता।" केशीकुमार श्रमण ने पूछा-"समर्थ क्यों नहीं होता?" प्रदेशी बोला-“उसके पास भार उठाने के साधन जीर्ण-शीर्ण और कमजोर हैं।"
केशीकमार ने कहा-"इसी प्रकार हे प्रदेशी ! जो पुरुष वृद्ध, जीर्ण तथा क्लान्त देह युक्त है, वह शरीर आदि उपकरणों के अपर्याप्त होने से एक वजनी लोहे को उठाने में समर्थ नहीं होता।"
तब प्रदेशी ने कहा-"भगवन् ! आपने जो कहा है, वह मुझे संगत नहीं लगता। इससे जीव और शरीर की भिन्नता नहीं सधती । यह तो एक बौद्धिक युक्ति मात्र है, वास्तवविकता नहीं है । भगवन् ! एक दिन मैं बाहरी सभा में अपने गणनायक, दण्डनायक आदि अधिकारियों के साथ बैठा हुआ था। उसी समय नगर-रक्षक एक चोर को पकड़कर लाया। मैंने उस चोर को जीवित अवस्था में तोला तोलकर मैंने उसके किसी अंग को भग्न किये बिना उसे मार डाला । मारकर उसे फिर तोला । उसका जितना वजन जीवितअवस्था में था, मृत अवस्था में भी उतना ही वजन हुअा । मुझे किसी भी प्रकार का अन्तर दिखाई नहीं दिया। उसका वजन न बढ़ा, न घटा । यदि उस व्यक्ति के जीवित अवस्था के वजन से मृत अवस्था के वजन में न्यूनता या कमी आ जाती तो मैं इस बात पर श्रद्धा कर लेता कि जीव अन्य है तथा शरीर अन्य है । जीव और शरीर दोनों एक नहीं हैं। भगवन् ! मैंने उसके जीवित और मृत अवस्था में लिये गए तोल में जब कुछ भी मिन्नता नहीं देखी तो मेरा यह मानना समुचित ही है कि जो शरीर है, वही जीव है, जो जीव है, वही शरीर है।"
इस पर केशीकुमार श्रमण ने कहा--"प्रदेशी ! तुमने कभी धौंकनी में क्या हवा भरी है या किसी से भरवाई है ?"
प्रदेशी बोला-"हाँ भगवन् ! मैंने ऐसा किया है और करवाया है।"
केशीकुमार श्रमण ने कहा-"जब हवा से भरी हुई धौंकनी को तोला तथा हवा निकाल देने के बाद तोला तो क्या तुम्हें उसमें कोई अन्तर नहीं दीखा ? अधिकाधिकता या कमी मालूम नहीं हुई ?"
प्रदेशी बोला-"ऐसा कुछ नहीं हुआ।"
केशीकुमार श्रमण ने कहा- "जीव अगुरु-अलधु है-न भारी है, न हलका है। उस चोर के शरीर को जीवित अवस्था में तोलने तथा मृत अवस्था में तोलने पर कुछ भी अन्तर न आने का यही कारण है। इसलिए तुम यह विश्वास करो कि जीव और शरीर एक नहीं
इस पर प्रदेशी ने कहा-"आपकी यह उपमा भी मुझे बुद्धि-काल्पित लगती है। इससे जीव और शरीर को पृथक्-पृथक् होना सिद्ध नहीं होता। एक बार मैं अपनी सभा में बैठा था। कोतवाल एक चोर को पकड़कर लाये। मैंने उस चोरी करने वाले पुरुष को सभी तरफ से देखा, सिर से पैर तक देखा, भलीभाँति देखा, किन्तु, मुझे उसमें कहीं भी जीव दिखाई नहीं दिया। उसके बाद मैंने उस पुरुष के दो टुकड़े कर दिये फिर उसको सब तरफ
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