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________________ तत्त्व : प्राचार : कथानुयोग] कथानुयोग-राजा प्रदेशी : पायासी राजन्य १७५ प्रदेशी ने कहा-"कोई छेद उसमें नहीं है, जिससे शब्द बाहर निकल सके।" केशी कुमार श्रमण बोले-"प्रदेशी! देखो, जरा विचार करो, इसी प्रकार जीव की अप्रतिहत गति है। उसकी गति कहीं भी रुकती नहीं। वह पृथ्वी को, शिला को, पर्वत को भेदकर भीतर से बाहर निकल सकता है। इसलिए तुम यह श्रद्धा करो कि जीव और शरीर अलगअलग हैं।" इस पर राजा प्रदेशी ने केशीकुमार श्रमण से कहा - "भगवन्! आपने यह जो उदाहरण दिया है, वह तो बुद्धि द्वारा एक विशेष कल्पना है । इस जीव तथा शरीर के अलग-अलग होने का विचार मुझे युक्ति-संगत प्रतीत नहीं होता। भगवन्! एक समय की बात है - मैं अपने बाहरी सभा-कक्ष में गण-नायक, दण्ड नायक आदि विशिष्ट जनों के साथ बैठा था। उस समय मेरे नगर-रक्षकों ने एक चोर को प्रमाण-सहित मेरे सामने उपस्थित किया। मैंने उस चोर को मार डाला, प्राण-रहित कर डाला। फिर उस को लोहे के एक बड़े घड़े में डलवा दिया। लोहे के घड़े को ढक्कन से ढक दिया। उस पर गलाये हुए लोहे और रांगे का लेप करवा दिया। विश्वास पात्र आदमियों को वहाँ नियुक्त करवा दिया। कुछ दिन बाद मैं वहाँ गया उस लोहे के घड़े को खुलवाया। वह कीड़ों से भरा था। उस लोहे के घड़े में कोई छिद्र नहीं था, कोई दरार नहीं थी, जिन से होकर जीव बाहर से उसमें प्रवेश कर सकें। यदि कोई छिद्र या दरार होती तो मैं मान लेता कि जीव उसमें से होकर घड़े में प्रवेश कर गये हैं। वैसा होता तो मैं विश्वास कर लेता वि जीव और है, शरीर और है। परन्तु, उस लोहे के घड़े में कोई छिद्र आदि नहीं है, फिर भी उसमें जीवों का उद्भव हो गया। इससे मैं समझता हूँ, मेरी यह मान्यता ठीक है कि जीव और शरीर एक ही तत्पश्चात् केशीकुमार श्रमण ने प्रदेशी राजा को इस प्रकार कहा-"राजन् ! क्या तुमने पहले कभी आग से तपाया हुअा लोहा देखा है ?" प्रदेशी बोला-"हाँ, मैंने देखा है।" केशीकुमार श्रमण ने कहा-"तपाने पर लोहा पूरी तरह आग के रूप में बदल जाता है या नहीं ?" प्रदेशी बोला-"हाँ, आग के रूप में बदल जाता है।" केशीकुमार श्रमण ने कहा-"क्या उस लोहे में छेद आदि हैं, जिनसे आग बाहर से उसके भीतर प्रवेश कर सके ?" प्रदेशी बोला-"भगवन् ! उस लोहे में छिद्र आदि नहीं है" केशीकुमार श्रमण बोला-"जैसे छेद आदि न होने पर भी अग्नि लोहे में प्रविष्ठ हो सकती है, वैसे ही जीव की भी अप्रतिहत गति है, जिससे वह पृथ्वी, शिला आदि बाह्य आवरणों को भेदकर बाहर से अन्दर प्रवेश कर जाता है। इसलिए तुम यह विश्वास करो, प्रतीति करो कि जीव तथा शरीर भिन्न-भिन्न है।" तब प्रदेशी राजा ने केशीकुमार श्रमण से कहा-"भगवन् ! यह उदाहरण आपने जो दिया है, बुद्धि-वैशिष्ट्य द्वारा परिकल्पित है। इससे मैं आपका सिद्धान्त स्वीकार नहीं कर सकता । मैं आपको बताना चाहता हूं, जिससे जीव और शरीर की अभिन्नता सिद्ध होती Jain Education International 2010_05 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002623
Book TitleAgam aur Tripitak Ek Anushilan Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNagrajmuni
PublisherConcept Publishing Company
Publication Year1991
Total Pages858
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Philosophy, Conduct, & Story
File Size17 MB
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