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________________ १७४ आगम और त्रिपिटक : एक अनुशीलन [खण्ड : ३ में न्मय हो जाते हैं। यद्यपि उनके मन में तो आता है कि अब जाएं, कुछ काल बाद जाएं, किन्तु, वैसा सोचने-सोचने में इस मनुष्य-लोक के उनके सम्बन्धी, जिनका आयुष्यपरिणाम बहुत छोटा है, काल-धर्म को प्राप्त हो जाते हैं। (४) तत्काल उत्पन्न देव स्वर्ग के काम-भोगों में इतने आसक्त हो जाते हैं, जिससे उनको मर्त्य-लोक सम्बन्धी अत्यन्त तीव्र दुर्गन्ध प्रतिकूल एवं अप्रिय लगती है। मनुष्य-लोक में आने की इच्छा रखते हए भी वे उस कुत्सित गन्ध के अाकाश-मण्डल में चार-पाँच सौ योजन तक ऊपर फैले रहने से उधर जानेपाने को उत्साहित नहीं रहते । यह सब देखते हुए प्रदेशी! तुम यह विश्वास करो कि जीव अन्य है और शरीर अन्य है, दोनों एक नहीं हैं।" इस पर प्रदेशी राजा ने केशीकुमार श्रमण से कहा-"भगवन! अापने जीव तथा शरीर की पृथक्ता बताने के लिए देवों के नहीं आने का जो रूपक बताया, वह तो बुद्धिपरिकल्पित एक दृष्टांत मात्र है । भगवन्! एक दिन मैं अपने अनेक गणनायकों, दण्डनायकों आदि के साथ सभा-भवन में बैठा था। उस समय कोतवाल एक आदमी को पकडे हए, जिसकी गर्दन बँधी हुई थी, दोनों हाथ पीछे की ओर बंधे हए थे, चुराई हई वस्तू साथ में थी, गवाह भी साथ था; मेरे पास लाया। मैंने उस चोर को जीवित ही लोहे के एक बड़े घड़े में डलवा कर लोहे के ढक्कन से अच्छी तरह उसका मुंह बन्द करवा दिया, फिर गले हए लोहे तथा राँगे का उस पर पर्त लगवा दिया तथा उसकी देख-रेख के लिए अपने विश्वासी अधिकारियों को वहाँ नियुक्त कर दिया। कुछ दिन बाद मैं उस लोहे के बड़े घड़े के पास गया। उसको खुलवाया। उसमें उस आदमी को मरा हुआ पाया। उस लोहे के घड़े में राई जितना भी सूराख नहीं था। छेद नहीं था, न कोई दरार ही थी, जिससे उसके भीतर बन्द उसका जीव बाहर निकल पाए। भगवन् ! यदि उसमें जरा भी छेद या दरार होती तो मैं मान लेता कि भीतर बन्द किये हुए आदमी का जीव उस छेद या दरार से बाहर निकल गया है। इस बात पर विश्वास कर लेता कि जीव और शरीर अलगअलग हैं, वे दोनों एक नही हैं, किन्तु, जब उस लोहे के घड़े में कोई छेद नहीं है तो मेरा यह अभिमत ठीक है कि जो शरीर है, वही जीव है, जो जीव है, वही शरीर है। जीव शरीर से अलग नहीं है।" प्रदेशी राजा का कथन सुनकर कुमार केशी श्रमण ने कहा-"प्रदेशी! जैसे कोई कटागारशाला-पर्वत शिखर जैसे आकार वाला मकान हो. वह बाहर और भीतर चारों ओर से लिपा हुआ हो, अच्छी तरह से ढंका हुआ हो, दरवाजा भी बिलकुल बन्द हो, हवा का जरा भी प्रवेश उसमें नहीं हो। यदि उसमें एक आदमी को नगाड़े और डंडे के साथ प्रवेश करा दिया जाए, फिर दरवाजे आदि भली भाँति बन्द कर दिये जाएँ, जिससे कहीं जरा भी अन्दर छेद, सूराख न रहे, यदि वह पूरुष उस मकान के बीचो-बीच खडा होकर डंडे से नगाड़े को जोर-जोर से बजाए तो बतलाओ, भीतर की आवाज बाहर नितलती है या नहीं, सुनाई पड़ती है या नहीं ?" प्रदेशी ने कहा- "भगवन् आवाज निकलती है, सुनाई पड़ती है।" __ तब केशीकुमार श्रमण बोले- "हे प्रदेशी! क्या उस मकान में कोई छेद या दरार है, जिससे शब्द बाहर रिकले ?" ____Jain Education International 2010_05 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002623
Book TitleAgam aur Tripitak Ek Anushilan Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNagrajmuni
PublisherConcept Publishing Company
Publication Year1991
Total Pages858
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Philosophy, Conduct, & Story
File Size17 MB
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