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________________ तत्त्व : आचार : कथानुयोग] कथानुयोग--राजा प्रदेशी : पायासी राजन्य तड़ित-उत्पीडित किये जाने से आकुल होकर मनुष्य-लोक में आना चाहते हैं, पर, आने में अक्षम होते हैं । (३) नरक में उत्पन्न नारक मनुष्य-लोक में आने की अभिलाषा तो रखते हैं, किन्तु, नरक सम्बन्धी असात वेदनीय कर्म के क्षीण नहीं होने से आ नहीं सकते। (४) नरक सन्बन्धी मनुष्य-कर्म के क्षीण नहीं होने से नारकीय जीव मनुष्य लोक में आने की इच्छा रखते हुए भी आ नहीं सकते ; इसलिए हे प्रदेशी! तुम इस बात पर विश्वास करो कि जीव अलग है और शरीर अलग है । ऐसा मत समझो कि जो जीव हैं, वही शरीर है, जो शरीर है, वही जीव है।" केशी स्वामी से यह सुनकर प्रदेशी राजा ने उनसे कहा-"भगवन् ! एक नया तर्क और उपस्थित हुया है, जिससे यह बात समझ में नहीं आती कि मेरी दादी बड़ी घर्मिष्ठ थी। इस सेयविया नगरी में उसने अत्यन्त धार्मिक जीवन बिताया। आपके अनुसार वह अपने उपाजित पुण्यों के कारण किसी देवलोक में उत्पन्न हुई है। उस दादी का मैं बहुत प्यारा पोता रहा हूँ। यदि वह अाकर मुझ से कहे कि पौत्र! मैं अपने पुण्यों के कारण, घार्मिक आचार-विचार के कारण देवलोक में उत्पन्न हुई हूँ। तुम भी धार्मिक प्राचारविचार के साथ अपना जीवन बिताओ, जिससे पुण्य के कारण तुम्हें देह छोड़ने के बाद देवलोक प्राप्त हो। “मेरी दादी मुझ से पाकर यह भी कहे कि जीव अलग है और शरीर अलग है। जीव और शरीर एक नहीं है, तो भगवन्! मैं आपकी बात पर विश्वास कर सकता है। जब तक मेरी दादी आकर ऐसा नहीं कहती, तब तक मेरी मान्यता सुस्थिर है और समीचीन भी है कि जो जीव है, वही शरीर है, जीव और शरीर पृथक्-पृथक् नहीं हैं।" इस पर केशीकुमार श्रमण ने प्रदेशी से कहा-"राजन् ! यदि तुम स्नान करके, मंगल-प्रायाश्चित करके गीली धोती पहने जल की झार और घूप-दान हाथ में लिए देवालय में अनुप्रविष्ट हो रहे हो, उस ससय कोई पुरुष पाखाने में खड़ा होकर कहे-स्वामिन् ! इधर आइए, मुहूर्त भर यहां बैठिए, खड़े रहिए, लेटिए ; तो क्या तुम क्षण भर के लिए भी उसकी बात मानोगे ?" प्रदेशी बोला-"भगवन् ! मैं उसकी बात नहीं मानूंगा।" केशी स्वामी ने पूछा-"क्यों नहीं मानोगे?" प्रदेशी ने कहा-“वह चारों ओर से अपवित्रता से व्याप्त है।" इस पर केशीकुमार श्रमण ने कहा-“राजन् ! तुम्हारे अनुसार तुम्हारी दादी, जो अत्यन्त धर्ममय जीवन बिताती रही, वह हमारे सिद्धान्त के अनुमार स्वर्ग में उत्पन्न हुई है। यह सही है कि तुम अपने दादी के प्रिय रहे हो, वह तुम्हारी दादी शीघ्र मनुष्य लोक में पाना चाहती है, किन्तु, पा नहीं सकती। हे प्रदेशी ! देवलोक में तत्काल उत्पन्न देव मनुष्य लोक में आने की अभिलाषा रखते हुए भी इन चार कारणों से आ नहीं पाते-(१) तत्कालउत्पन्न देव दिव्य काम-भोगों में मूच्छित हो जाते हैं। वे मनुष्य-लोक के भोगों की ओर जरा भी आकृष्ट नहीं रहते, उस ओर ध्यान नहीं देते और न उनकी अमिलाषा ही करते हैं। (२) तत्काल उत्पन्न देव देवलोक-सम्बन्धी-दिव्य काम-भोगों में इतने तल्लीन हो जाते हैं कि उनका मनुष्य-लोक-सम्बन्धी प्रेम यो आकर्षण समाप्त हो जाता है, देवलोकसम्बन्धी अनुराग बढ़ जाता है। (३) वे तत्काल उत्पन्न देव देव लोक में दिव्य काम-भोगों ____Jain Education International 2010_05 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002623
Book TitleAgam aur Tripitak Ek Anushilan Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNagrajmuni
PublisherConcept Publishing Company
Publication Year1991
Total Pages858
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Philosophy, Conduct, & Story
File Size17 MB
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