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________________ १७२ आगम और त्रिपिटक : एक अनुशीलन [खण्ड : ३ यह सुनने के बाद प्रदेशी राजा ने केशीकुमार श्रमण से निवेदन किया-"भगवन् ! क्या मैं यहाँ बैठ जाऊँ ?" केशी ने कहा--"राजा! यह बगीवे की भूमि तुम्हारी है; अतः बैठने, न बैठने के सम्बन्ध में तुम स्वयं ही समझ लो।" तब चित्त सारथि के साथ प्रदेशी राजा केशीकुमार श्रमण के निकट बैठ गया। बैठ कर इस प्रकार पूछा-- "भदन्त! क्या आप श्रमण निग्रन्यों का ऐसा सिद्धान्त है कि जीव अन्य है और शरीर अन्य है अर्थात् जीव और शरीर भिन्नभिन्न स्वरुप वाले हैं ? शरीर और जीव दोनों एक नहीं है।" केशी स्वामी ने उत्तर दिया- "जीव अलग है और शरीर अलग है । जो जीव है, वही शरीर है, ऐसा हम नहीं मानते ।" प्रदेशी राजा ने कहा-"जीव भिन्न है और शरीर भिन्न है, यदि ऐसा मानते हैं तो मेरे पितामह, जो सेयविया नगरी में राज्य करते थे, घोर अधार्मिक थे, आपके अनुसार वे अपने अत्यन्त कलुषित पाप कर्मों के कारण मरकर किसी नरक में पैदा हुए हैं। मैं उनका बहुत प्रिय रहा हूँ। इसलिए यदि वे पाकर मुझ से यों कहें कि अत्यन्त कलुषित पाप-कर्मों के कारण मैं नरक में उत्पन्न हुआ हुँ, तुम अधार्मिक मत होना, तो मैं आपके कथन पर श्रद्धा एवं विश्वास कर सकता हूँ और मान सकता हूँ कि जीव भिन्न है तथा शरीर भिन्न है, दोनों एक रूप नहीं हैं । किन्तु, जबतक मेरे पितामह आकर मुझ से नहीं कहते, मेरी धारण सुप्रतिष्ठ है कि जो जीव है, वही शरीर है, जो शरीर है, वही जीव है।" केशी स्वामी ने कहा-"प्रदेशी! सूर्यकान्ता नामक तुम्हारी रानी है । यदि तुम उसको स्नान आदि किये हुए, समस्त प्राभरण आदि पहने हुए किसी अन्य अलंकार-विभूषित, सुसज्जित पुरुष के साथ इष्ट काम-भोगों को भोगते हुए देख लो तो तुम उस पुरुष के लिए क्या दण्ड निश्चित करोगे ?" प्रदेशी ने कहा-“मैं उस पुरुष के हाथ कटवा दूंगा, पैर कटवा दूंगा, उसे काँटों से छिदवा दूंगा, उसे शूली पर चढ़वा दूंगा अथवा एक ही बार में उसे समाप्त करवा दूंगा।" प्रदेशी राजा के इस कथन को सुनकर केशीकुमार श्रमण ने कहा-"राजन ! यदि वह पुरुष तुमसे कहे कि आप घड़ी भर ठहर जाएँ, मेरे हाथ आदि न कटवाएँ, मैं अपने मित्रजनों, परिवारिक-जनों, स्वजनों तथा परिचित-जनों से यह कहकर चला आऊँ कि मैं कुत्सित पाप-कर्मों का आचरण करने के कारण यह दण्ड भोग रहा हूँ, तुम ऐसा कभी मत करना तो हे राजन्! क्या तुम क्षण भर के लिए भी उस पुरुष की यह बात मानोगे?" प्रदेशी बोला-"नहीं केशीकुमार श्रमण ने पूछा- "उसकी बात क्यों नहीं मनोगे?" प्रदेशी बोला-"भगवन्! वह पुरुष अपराधी है।" इस पर केशीकुमार श्रमण ने कहा-"तुम्हारे पितामह भी इसी प्रकार हैं । यद्यपि वे मनुष्य-लोक में आना चाहते हैं, किन्तु, पा नहीं सकते । प्रदेशी ! तत्काल नरक में उत्पन्न नारकीय जीव चार कारणों से मनुष्य लोक में आने की इच्छा करते हैं, किन्तु, वहाँ से आने में असमर्थ रहते हैं। वे चार कारण इस प्रकार हैं :-- (१) जब वे वहाँ की अत्यन्त तीव्र, घोर वेदना का अनुभव करते हैं, तब वे मनुष्य लोक में प्राना चाहते हैं, पर, उन्हें कौन छोड़े, आ नहीं सकते। (२) नरक में उत्पन्न जीव परमाधार्मिक नरक पालों द्वारा बार-बार ___Jain Education International 2010_05 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002623
Book TitleAgam aur Tripitak Ek Anushilan Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNagrajmuni
PublisherConcept Publishing Company
Publication Year1991
Total Pages858
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Philosophy, Conduct, & Story
File Size17 MB
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