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तत्त्व : आचार : कथानुयोग] कथानुयोग-राजा प्रदेशी : पायासी राजन्य
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देखकर मन-ही-मन सोचा--जड़ ही जड़ की उपासना करते हैं, मुंड ही मुंड की उपासना करते हैं, मूढ़ ही मूढ़ की उपासना करते हैं, अपंडित ही अपंडित की उपासना करते हैं और अज्ञानी ही अज्ञानी की उपासना करते हैं। परन्तु, यह कौन पुरुष है, जो जड़, मुंड, मूढ़, अपंडित और अज्ञानी होते हुए भी श्री-ह्री से सम्पन्न है, शारीरिक कांति से सुशोभित है ? यह क्या खाता है ? यह इतने लोगों को क्या देता है ? क्या समझाता है ? यह इतने लोगों के बीच में बैठ कर जोर-जोर से क्या बोल रहा है ? राजा ने चित्त से कहा-"यह कौन पुरुष है, जो ऊँची आवाज से बोल रहा है? इसके कारण वह अपने ही उद्यान में थकान मिटाने हेतु घूम-फिर नहीं सकते।"
तब चित्त सारथि ने प्रदेशी राजा से कहा- "स्वामिन् ! ये भगवान् पार्श्वनाथ की प्राचार्य परम्परा के अनुगामी केशीकुमार श्रमण हैं । ये उच्च कुल में उत्पन्न हुए हैं। मति, श्रुत, अवधि तथा मनः पर्याय रूप चार ज्ञान युक्त हैं । प्राधो-अवधि ज्ञान-परमावधि से कुछ कम अवधि ज्ञान से सम्पन्न हैं । अन्नजीवी हैं।"
अाश्चर्य-चकित होकर प्रदेशी राजा ने सारथि से कहा- "यह पुरुष आधो-अवधिज्ञान से सम्पन्न है और अन्नजीवी है ?" .
चित्त बोला--"हाँ ! स्वामिन् ! ऐसा ही है।" राजा प्रदेशी बोला-"क्या यह पुरुष अभिगयनीय है?" चित्त ने कहा- ''हाँ स्वामिन् ! यह अभिगयनीय हैं।" राजा ने कहा-"तो फिर हम इस पुरुष के पास चलें ।"
चित्त बोला-"हाँ, स्वामिन् चलें ।" राजा प्रदेशी के प्रश्न : श्रमरण केशी द्वारा समाधान
चित्त सारथि के साथ प्रदेशी राजा केशीकुमार श्रमण, जहाँ विराजित थे, वहाँ पाया। केशीकुमार श्रमण से कुछ दूर खड़ा होकर प्रदेशी राजा बोला-"भदन्त! क्या आप प्राधो-अवधि-ज्ञान के धारक हैं ? क्या आप अन्नजीवी हैं?
केशीकुमार श्रमण ने फरमाया-प्रदेशी! जैसे कोई अंक-रत्न का व्यापारी, शंखव्यापारी या हाथी दाँत आदि का व्यापारी शुल्क दबाने की नीयत से सीधा रास्ता नहीं पूछता, उसी प्रकार तुम विनय-व्यवहार का लंघन करने की भावना लिए मुझ से उचित रीति से नहीं पूछ रहे हो । प्रदेशी! मुझे देखकर क्या तुम्हारे मन में तह विचार उत्पन्न नहीं हुआ कि जड़ ही जड़ की उपासना करते हैं; इत्यादि । क्या मेरा यह कथन सत्य है ?"
प्रदेशी बोला-"आपका कथन सत्य है। मेरे मन में ऐसा ही विचार आया था। प्रापको ऐसा कौन-सा ज्ञान और दर्शन प्राप्त है, जिसके द्वारा प्रापने मेरा संकल्प जाना?"
. केशीकुमार श्रमरण ने कहा--"हमारे शास्त्र में ज्ञान के पाँच प्रकार के बतलाए हैं(१) आभिनिबोधिक ज्ञान-मतिज्ञान, (२) श्रुत ज्ञान, (३) अवधि ज्ञान, (४) मनः पर्याय ज्ञान, (५) केवल ज्ञान ।
उन पाँचो ज्ञान में मतिज्ञान, श्रुत ज्ञान, अवधि ज्ञान तथा मानः पर्याय ज्ञान मुझे प्राप्त है, केवल ज्ञान प्राप्त नहीं है । केवल ज्ञान अर्हत्-भगवन्तों को होता है इन चार ज्ञानों का धारक होने से मैंने प्रदेशी ! तुम्हारे आन्तरिक भाव को जाना।"
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