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________________ आगम और त्रिपिटक : एक अनुशील [ खण्ड : ३ किया । चित्त सारथि केशीकुमार श्रमण की सेवा में उपस्थित हुआ, वंदन - नमस्कार किया । केशीकुमार श्रमण ने धर्मोपदेस किया - "भगवन् ! हमारा राजा प्रदेशी घोर अधार्मिक है । यदि आप उपदेश दें तो उसके लिए हितकर हो, सभी प्राणियों के लिए हितकर हो, जनपद के लिए हितकर हो । १७० केशीकुमार श्रमण ने कहा- "चित्त ! जीव इन चार कारणों से केवलि-भाषित धर्म को नहीं सुनता (१) जो प्राराम या उद्यान में ठहरे हुए साधु के सामने नहीं जाता, उनके उपदेश में शामिल नहीं होता, (२) उपाश्रय में ठहरे हुए साधु को वन्दन करने नहीं जाता, (३) भिक्षा के लिए गाँव में गये हुए साधु का सत्कार करने के लिए सामने नहीं जाता, भोजन आदि नही देता, (४) कहीं साधु संयोग मिल जाए तो अपने को छिपा लेता है, पहचाना न जाए इसलिए हाथ की, कपड़े की या छाते की ओट कर लेता है । चार कारणों से जीव केवलि-भाषित धर्म सुनने का अवसर पाता है (१) आराम या उद्यान में पधारे हुए साधु को जो वन्दन करने जाता है, (२) उपाश्रय में ठहरे हुए साधु को जो वन्दन करने जाता है, (३) भिक्षा के लिए गए हुए साधु के सामने जाता है, भिक्षा देता है, (४) साधु का संयोग मिल जाये तो अपने को छिपाता नहीं । "हे चित्त ! तुम्हारा राजा प्रदेशी उद्यान में आये हुए साधु के सम्मुख नहीं जाता, अपने को प्राच्छादित कर लेता है, तो मैं उसको धर्म का उपदेश कैसे दूं ?" चित्त सारथि ने निवेदन किया --- "भगवन् ! किसी समय कम्बोज देश वासियों ने हमारे राजा को चार घोड़े भेंट किये थे । उनके बहाने मैं उसको आपके पास लाऊंगा । श्राप उसे धर्मोपदेश देने में उदासीन मत होना, धर्म का उपदेश देना ।" केशीकुमार श्रमरण ने कहा - " यथा - प्रसंग देखेंगे । चित्त ने केशीकुमार श्रमण को वन्दना की | वापस लौटा। दुसरे दिन सवेरे प्रदेशी राजा के पास गया, हाथ जोड़ कर निवेदन किया- " कम्बोज - वासियों ने आपके लिए जो चार घोड़े उपहार स्वरूप भेजे थे, मैंने उन्हें प्रशिक्षण देकर तैयार कर दिया है । स्वामिन् ! ग्राप पधार कर उनकी चाल, चेष्टाएँ आदि देखें ।" राजा प्रदेशी ने कहा- "उन्हीं चार घोड़ों को जोत कर रथ यहाँ लाओ ।" रथ आया । राजा उस पर सवार हुआ । सेयविया नगरी के बीच से गुजरा । चित्त सारथि ने रथ को अनेक योजन तक बड़ी तेजी से दौड़ाया। गर्मी, प्यास और रथ की अत्यन्त तेज चाल से लगती हवा के कारण राजा प्रदेशी परेशान हो गया । चित्त से कहा - "मेरा शरीर थक गया है, रथ को वापस लौटा लो।" चित्त ने रथ को लौटाया, मृगवन उद्यान के पास उसे रोका तथा राजा से कहा कि यहाँ हम थकावट दूर करें घोड़ों की भी, हमारी भी । राजा ने कहा- "ठीक है, ऐसा ही करो ।" राजा के हाँ करने पर चित्त सारथि ने मृगवन उद्यान की तरफ रथ को मोड़ा तथा उस जगह पर प्राया, जो केशीकुमार श्रमण के प्रवास स्थान के समीप थी । घोड़ों को रोका। रथ को खड़ा किया, रथ से उतरा । घोड़ों को खोला, राजा से निवेदन किया-"हम यहाँ विश्राम कर अपनी थकावट दूर करें ।” राजा रथ से नीचे उतरा । राजा ने उस स्थान की ओर देखा, जहाँ केशीकुमार श्रमरण बहुत बड़ी परिषद् को उपदेश कर रहे थे । राजा ने यह Jain Education International 2010_05 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002623
Book TitleAgam aur Tripitak Ek Anushilan Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNagrajmuni
PublisherConcept Publishing Company
Publication Year1991
Total Pages858
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Philosophy, Conduct, & Story
File Size17 MB
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