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तत्त्व : प्राचार : कथानुयसूग] कथानुयोग- राजा प्रदेशी : पायासी राजन्य
चित्त सारथि अपने ठहरने के स्थान पर आया। स्नान आदि से निवृत्त हुआ। केशीकुमार श्रमण की सेवा में उपस्थित हुआ। उसने धर्म सुना, वन्दन-नमस्कार-पूर्वक निवेदन किया- "जितशत्रु राजा ने मुझे विदा कर दिया है, मैं सेयविया नगरी लौट रहा हूँ । वह नगरी बड़ी अानन्दप्रद है, दर्शनीय है। आप वहाँ कृपा कर पधारो।" चित्त सारथि के इस कथन की केशीकुमार श्रमण ने कोई विशेष महत्त्व नहीं दिया। चित्त सारथि ने दूसरी बार तथा तीसरी बार वैसा ही निवेदन किया।।
इस पर केशीकुमार श्रमण बोले-"चित्त कोई हरा-भरा, मनमोहक, गहरी छाया वाले पेड़ों से युक्त वन-खण्ड हो तो वह मनुष्यों, पशुओं और पक्षियों आदि के रहने योग्य होता है या नहीं।"
चित्त सारथि ने उत्तर दिया-"हाँ भगवन् ! वैसा वन-खण्ड रहने योग्य होता
फिर केशीकुमार श्रमण ने चित्त से पुछा- "यदि उस वन-खण्ड में मनुष्यों, पशुओं तथा पक्षियों अदि का रक्त, मांस खाने वाले पापी लोग रहते हों तो क्या वह वन-खण्ड रहने योग्य है या नहीं ?"
चित्त सारथि ने कहा- "वह रहने योग्य नहीं है।" केशीकुमार श्रमण ने पूछा-"क्यों नहीं है ?" चित्त बोला- "भगवन् ! वह भय और संकट युक्त है।"
यह सुनकर केशीकुमार श्रमण ने चित्त को कहा-''तुम्हारी सेयविया नगरी कितनी ही अच्छी हो, पर, वहाँ का राजा प्रदेशी बड़ा अधार्मिक, पापी और दुष्ट है। वैसी नगरी में कैसे पायें ?"
___ यह सुनकर चित्त ने निवेदन किया--"भगवन् ! आपको प्रदेशी राजा से क्या करना है। सेयविया नगरी में दूसरे भी बहुत लोग हैं, जो आपको वन्दन-नमस्कार करेंगे, पर्युपपासना करेंगे, भिक्षा तथा आवश्यक सामग्री देंगे । यह सुनकर केशीकुमार श्रमण ने कहा--"तुम्हारा निवेदन ध्यान में रखेंगे।"
चित्त वन्दन-नमस्कार कर वहाँ से बाहर निकला, अपने स्थान पर आया। अपनी नगरी की दिशा में खाना हुआ। मार्ग में पड़ाव डालता हुआ वह यथा-समय सेयविया नगरी के मृगवन नामक उद्यान में पहुँच उद्यान-पालकों को बुलाकर कहा-"देखो, जब केशीकुमार नामक श्रमण यहाँ पधारें तो तुम उनको वन्दन-नमस्कार करना । साधु-चर्या के अनुरूप स्थान देना, पाट बाजोट आदि आवश्यक सामग्री देना ओर मुझे इसकी शीघ्र सूचना करना।" उद्यान पालकों ने निवेदन किया-"स्वामिन् ! आपकी आज्ञा की यथावत पालन करेंगे।" चित्त नगर में आया। प्रदेशी राजा के पास गया, जितशत्रु राजा द्वारा दी गई भेंट उन्हें दी। राजा प्रदेशी ने चित्त का सम्मान किया, उसे विदा किया।
कुछ समय बाद केशीकुमार श्रमण ने श्रावस्ती नगरी के कोष्ठक चैत्य से विहार किया। अपने पाँच सौ अन्तेवासी साधुओं के साथ सेयविया नगरी के मृगवन नामक उद्यान में पधारे । सेयविया नगरी के लोग वहाँ आये वन्दन-नमस्कार करने वहाँ आये । उद्यानपालक भी यह सुनकर बहुत प्रसन्न हुए। उन्होंने केशीकुमार श्रमण को वन्दन किया, पाट बाजोट आदि लेने की प्रर्थना की। ऐसा कर वे चित्त सारथि के घर आये और उन्हें सूचित
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