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________________ १६८ आगम और त्रिपिटक : एक अनुशीलन [खण्ड : ३ ने रत्नों की, किसी ने वज्र-रत्नों की, किसी ने फूलों की, किसी ने सुगन्धित द्रव्यों की और किसी ने आभूषणों की वर्षा कराई । अत्यन्त आनदोल्लास-पूर्वक सुर्याभदेव का अभिषेक किया। सूर्याभ का पूर्व भव सुर्याभ देव के समस्त चरित्र को देखकर गौतम ने भगवान् से पूछा :--"भगवन् ! सूर्याभ देव को यह सम्पत्ति कैसे मिली? पूर्व-जन्म में वह कौन था? क्या नाम था ? क्या गोत्र था, कहाँ का निवासी था? उसने ऐसा क्या दान किया, अन्त-प्रान्त आदि विरस आहार किया, श्रमण माहण से ऐसा कौन-सा धार्मिक, आर्य सुवचन सुना, जिससे यह इतनी ऋद्धि तथा वैभव प्राप्त कर सका।" भगवान् महावीर ने उत्तर दिया-"जम्बू द्वीप के अन्तर्गत भरत क्षेत्र में कैकय अर्ध नामक जन पद-देश था । बहुत समृद्ध था । उस कैकय अर्ध में सेयविया नामक नगरी थी। वह बहुत वैभवयुक्त और सुन्दर थी। उस सेयविया नगरी के राजा का नाम प्रदेशी था । वह राजा अमिष्ठ, अधर्माख्यायी, अधर्मानुग, अधर्मप्रलोकी, अधर्म प्रजनक, अधर्मशील समुदाचारी-अधर्मपरक स्वभाव और आचार वाला तथा अधर्म से आजीविका चलाने वाला था। मारो, छेदन करो, भेदन करो–यों बोलने वाला था। उसके हाथ रक्त-रंजित रहते थे । वह अधर्म का अवतार था, प्रचंड क्रोधी था। प्रदेशी राजा की रानी सर्यकान्ता थी. जो पति में अत्यन्त अनुरक्त और स्नेहशील थी। राजकुमार सूर्यकान्त युवराज था। राज्य आदि की देखभाल में सहयोगी था। प्रायु में बड़ा, बड़े भाई एवं मित्र सरीखा चित्त नामक राजा का सारथि था। वह अति निपुण, राजनीतिज्ञ तथा व्यवहार-कुशल था। उस समय कणाल नामक एक जनपद था। वह धन्य-धान्य-सम्पन्न था। श्रावस्ती नगरी उसकी राजधानी थी। उसके ईशानकोण में कोष्ठक नामक चैत्य था। प्रदेशी का अन्तेवासी जैसा अधीन, प्राज्ञानवर्ती जितशत्र कुणाला जनपद का राजा था । एक बार प्रदेशी राजा ने चित्त सारथि को जितशत्रु को उपहार देने हेतु भेजा, साथ ही साथ वहाँ का शासन देखने को भी । चित्त गया। उपहार सौंपा, राजा ने सहर्ष स्वीकार किया, चित्त के विश्राम की सुन्दर व्यवस्था की। श्रमण केशी-कुमार : श्रावस्ती-प्रागमन केशीकुमार (कुमारावस्था में दीक्षित) श्रमण पाँच सौ अनगारों सहित श्रावस्ती में आये । कोष्ठक चैत्य में ठहरे । नागरिक उनके दर्शन करने, उपदेश सुनने गये। लोगों का कोलाहल सनकर चित्त सारथि ने उस सम्बन्ध में पूछा । द्वारपाल ने बताया--भगवान पार्श्व की परम्परा के केशीकुमार श्रमण पधारे हैं, कोष्ठक चैत्य में विराजमान हैं। लोग उनके दर्शन हेतु जा रहे हैं । यह सुनकर चित्त सारथि बहुत प्रसन्न हुआ। स्नान आदि से निवृत्त होकर, मांगलिक वस्त्र पहनकर केशीकुमार श्रमण के वहाँ गया, वन्दन नमस्कार किया। केशीकुमार श्रमण ने धर्म-देशना दी । चित्त सारथि को श्रावस्ती गरी में रहते हुए काफी समय हो गया । राजा जितशत्रु ने राजा प्रदेशी को देने के लिए उसे बहुमूल्य - पहार दिये और सम्मानपूर्वक विदा किया। Jain Education International 2010_05 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002623
Book TitleAgam aur Tripitak Ek Anushilan Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNagrajmuni
PublisherConcept Publishing Company
Publication Year1991
Total Pages858
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Philosophy, Conduct, & Story
File Size17 MB
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