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________________ तत्त्व : प्राचार : कथानुयोग] कथानुयोग-राजा प्रदेशी : पायासी राजन्य . १६५ सूर्याभदेव आमलकल्पा के बाहर विद्यमान पाम्रशाल वन चैत्य में भगवान् महावीर पधारे । परिषद् भगवान् की वन्दना करने आई। राजा भी भगवान् की वन्दना करने आया । जब भगवान् अाम्रशाल वन चैत्य में विराजित थे, उस समय सूर्याभ नामक देव सौधर्म स्वर्ग में सूर्याभ नामक विमान की सुधर्मा सभा में सूर्याभ सिंहासन पर संस्थित अपने सामानिक देवों के साथ सपरिवार चार अग्रमहर्षियों, तीन परिषदों, सात सेनाओं, सात सेनापतियों, सोलह हजार आत्म-रक्षक देवों तथा दूसरे बहुत से सूर्याभ विमानवासी वैमानिक देव-देवियों सहित दिव्य भोग भोगता हुअा समय व्यतीत करता था। उस समय उसने अपने विपुल अवधिज्ञान द्वारा जम्बू द्वीप के अवलोकन में प्रवृत्त होने के समय जम्बू द्वीप के अन्तर्गत भरत क्षेत्र में आमलकल्पा नगरी के बाहर आम्रशाल वन चैत्य में श्रमण भगवान् महावीर को देखा । वह बहुत प्रसन्न हुा । सिंहासन से नीचे उतरा। वैसा कर उसने विधि पूर्वक भगवान् को वन्दन-नमस्कार किया। भगवान् महावीर के दर्शन की उत्कंठा : तैयारी तत्पश्चात् सूर्याभ देव के मन में ऐसा विचार उत्पन्न हुआ कि भगवान् के समक्ष जाऊँ, उनको वन्दन-नमन करूं, उनका सत्कार-सम्मान करूँ। ऐसा सोच कर उसने (गृहकार्य करने वाले वृत्ति जीवी भृत्य सदृश) अपने आभियोगिक देवों को बुलाया । उनसे कहा"तुम जम्बूद्वीप के अन्तर्गत भरत क्षेत्र में विद्यमान आमलकल्पा नगरी के बाहर पाम्रशाल वन चैत्य में विराजित भगवान महावीर के यहाँ जानो और उनको विधिपूर्वक वन्दन-नमस्कार करो । भगवान् महावीर के विराजने के स्थान के आसपास चारों ओर योजन प्रमाण गोलाकार भूमि को घास-फूस, कंकड़-पत्थर आदि हटाकर अच्छी तरह साफ करो। फिर दिव्य, सुरभित गन्धोदक की धीरे-धीरे वर्षा करो, जिससे कीचड़ न हो, धूल मिट्टी जम जाए। उस पर रंग-बिरंगे सुगन्धित पुष्पों की वर्षा करो. जिनके वन्त नीचे की ओर हों तथा ऊपर की ओर हों । तत्पश्चात् उस स्थान को अगर, लोबान आदि धूपों से महका दो । ऐसा कर, तुम वापस आकर मुझे बतायो ।' वे आभियोगिक देव अपने स्वामी सूर्याभदेव की आज्ञा सुनकर बहुत प्रसन्न हुए और वैक्रिय रूप बनाकर जहाँ भगवान् महावीर विराजित थे, वहाँ आए। उन्होंने अपना परिचय देते हुए भगवान् को वन्दन-नमस्कार किया। तदनन्तर उन आभियोगिक देवों ने जैसे उनके स्वामी सूर्याभ देव ने आज्ञा दी थी, संवर्तक वायु की विकुर्वणा कर भू-भाग को साफ किया। उन्होंने मेघों की विक्रिया की और रिमझिम-रिमझिम पानी बरसाया, जिससे रजकण दब गए । फिर उन्होंने पुष्प-वर्षक बादलों की विकुर्वणा की। फूलों की प्रचुर मात्रा में वर्षा की । वे फूल सर्वत्र ऊँचाई में एक हाथ प्रमाण हो गए। फूलों की वर्षा करने के बाद उन्होंने अगर, लोबान आदि धूप जलाए। उनकी मन मोहक सुगन्ध से सारा वातावरण महक उठा। इतना करने के पश्चात् वे आभियोगिक देव श्रमण भगवान् महावीर के पास आए, उनको वन्दन नमन किया । वहाँ से वे चलकर सौधर्म स्वर्ग में सूर्याभ विमान में सुधर्मा सभा ____Jain Education International 2010_05 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002623
Book TitleAgam aur Tripitak Ek Anushilan Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNagrajmuni
PublisherConcept Publishing Company
Publication Year1991
Total Pages858
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Philosophy, Conduct, & Story
File Size17 MB
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