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तत्त्व : प्राचार : कथानुयोग] कथानुयोग--मातंग हरिकेश बल : मातंग जातक १६१
दिट्ठ मंगलिका ने उपर्युक्त रूप में अपने पुत्र को समझाते हुए कहा-"बेटा ! अब भविष्य में इस प्रकार के अपशीलों-शील का परिपालन न करने वालों को दान मत देना । जिन्होंने लोक में आठ समापत्तियों का लाभ किया है, पाँच अभिज्ञाएँ साधी हैं, जो ऐसे धर्मामनुरत श्रमण ब्राह्मण हैं, प्रत्येक बुद्ध हैं, उनको दान देना।"
___अब मैं बेहोश पड़े ब्राह्मणों को अमृतौषधि पिलाकर स्वस्थ करूँ, यह कहकर दिट्ठ मंगलिका ने बाकी बची जूंठी काँजी मँगवाई तथा उसमें जल मिलवाया। उसे उन बेहोश पड़े सोलह हजार ब्राह्मणों के मुखों पर छिड़का। हर ब्राह्मण अपने मुंह पर लगी धूल को पोंछता हुआ खड़ा हो गया। सबके सब स्वस्थ हो गए।
ब्राह्मण ठीक तो हो गए, पर, वे अपने मन में बड़े लज्जित हुए। वे कहने लगे-"हम चांडाल का जूठा पी लिया। हम ब्राह्मण से अब्राह्मण हो गए।" लज्जावश उन्होंने वाराणसी छोड़ दी । वे मेद नामक राष्ट्र में चले गए। वहाँ राजा की सन्निधि में रहने लगे। मंडव्य वाराणसी में ही रहा । अहंकार-मार्जन
उसी समय की बात है, वेत्रवती नगरी के समीप वेत्रवती नहीं के तट पर जातिमंत नामक ब्राह्मण था। यद्यपि वह प्रव्रजित था, किन्तु, उसे अपनी जाति का बड़ा अहंकार था । बोधिसत्त्व उसका अभिमान दूर करना चाहते थे। इसलिए वे उसके समीप ही नदी के ऊपर की ओर के भू-भाग में रहने लगे । एक दिन उन्होंने दातुन किया। उन्होंने इस संकल्प
तुन को नदी में फेंका कि वह जातिमंत ब्राह्मण की जटाओं में जाकर लगे । ठीक ऐसा ही हुआ। वह दातुन-बहती-बहती ब्राह्मण की जटाओं के लगी। ब्राह्मण यह देखकर बड़ा क्षुब्ध हुआ । बोला- "अरी ! तेरा बुरा हो, तूं यहाँ कैसे पहुँच गई ?" ब्राह्मण ने मन में विचार किया, मैं पता लगाकर छोडूंगा, यह दातुन कहाँ से आई । वह नदी की धारा के ऊपर के प्रदेश में गया। वहाँ उसने बोधिसत्त्व को देखा, पूछा--"तुम्हारी क्या जाति है ?"
वह बोला-"चांडाल हूँ।" जातिमंत ने कहा-"क्या नदी में दातुन तुमने गिराई ?" चांडाल ने कहा- "हाँ, दातुन मैंने ही गिराई।"
साथ
जटा च केसा अजिनानि वत्था, जरूदपानं व मुखं परूलहं । पजं इमं पस्सथ रूम्मरूपि, न जटाजिनं तायति अप्पपझं ॥२२॥ येसं रागो च दोसो च, अविज्जा च विराजिता। खीणासवा अरहन्तो, तेसु दिन्नं महप्फलं ॥२३॥
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