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________________ पागम और त्रिपिटक : एक अनुशीलन [खण्ड : ३ मण्डव्य मेरा उच्छिष्ट पिण्ड-जूंठा भोजन खाए। ऐसा करने से यक्ष उसको पीड़ा नहीं देंगे। तुम्हारा पुत्र स्वस्थ हो जाएगा।" दिट्ठ मंगलिका ने बोधिसत्त्व का कथन सुना । उसने स्वर्ण का प्याला आगे बढ़ाते हुए निवेदन किया-"स्वामिन् ! अमृतौषध कृपा कर इसमें डालें ।" । बोधिसत्त्व ने जूंठी काजी उसमें डाली और कहा--"इसमें से आधी पहले अपने बेटे के मुख में डाल देना । बाकी बचे, उसमें जल मिलाकर शेष ब्राह्मणों के मुख में डाल देना। सभी स्वस्थ हो जाएंगे।" इतना कहकर बोधिसत्त्व वहाँ से ऊपर उठकर आकाश-मार्ग द्वारा हिमालय पर चले गए। दिटठ मंगलिका ने उस सोने के प्याले को अपने मस्तक पर रखा। यह बोलती हई किम अमतौषधि प्राप्त हुई है, वह अपने घर गई। बोधिसत्त्व ने जैसा बताया था, उसने अपने पुत्र के मुंह में कांजी डाली। यक्ष तत्क्षण उसे छोड़कर भाग गए। मंडव्य को होश आ गया। वह स्वस्थ हो गया । अपने मुँह पर लगी धूल पोंछते हुए उठ खड़ा हुआ। उसने दिट्ठ मंगलिका से पूछा- "माँ ! यह सब क्या हुआ?' दिट मंगलिका बोली---"जो तुमने किया, तू खुद समझ। जिनको तुमने दक्षिणा योग्य समझा, उनकी दशा देख ।" मंडव्य ने बेहोश पड़े ब्राह्मणों को देखा । उसे बड़ा पश्चात्ताप हुआ। दिट्ठ मंगलिका उससे बोली-"बेटा मंडव्य ! तुम्हें यथार्थ ज्ञान नहीं है। दान देने के उत्तम स्थान की, दान पाने के सच्चे अधिकारी की-सत्पात्र की तुम्हें सही पहचान नहीं है। ऐसे लोग, जिनको तुमने प्रचुर दान दिया, अभी तुम्हारे सामने मूच्छित पड़े है । वास्तव में ये दान देने योग्य नहीं हैं। भविष्य में ऐये शीलवजित जनों को दान मत देना । शीलयुक्त सात्त्विक पुरुषों को ही दान देना। “मंडव्य ! तू अभी बालक है। तुम्हारी बुद्धि अपरिपक्व है । दान के उत्तम क्षेत्रों को समझने में तू अमसर्थ है। यही कारण है कि तू अत्यधिक कषाययुक्त-क्रोध, मान, माया तथा लोभ युक्त, क्लिष्ट कर्मा, असंयतजनों को दान दे रहा है। इनमें कुछ लोगों के जटाएँ हैं, लम्दे-लम्बे केश हैं, मृगछाला के वस्त्र हैं, घास-फूस, झाड़-झंखाड़ से ढंके हुए पुराने कुएं को ज्यों कइयों के मुख बालों से भरे हैं, ढके हैं, किन्तु, ध्यान रखो, जिनमें प्रज्ञा नहीं है, विवेक नहीं है, वे जटा से, मृगछाला से वारण नहीं पा सकते, अपनी रक्षा नहीं कर सकते। निर्वाण प्राप्त नहीं कर सकते। जिनकी रागात्मकता तथा अविद्या नष्ट हो गई है, जिनके प्रस्रव क्षीण हो गए है, जो अर्हत् हो गए हैं, अर्हद-पद की ओर उन्मुख हैं, उन्हीं को देने से महान् फल-उत्तम फल प्राप्त होता है।"२ १. इदञ्च मय्हं उत्तिट्ठपिण्ड, मण्डव्यो भुञ्जतु अप्पपञो। यक्खा च ते नं न विहेठयेय्यु, पुत्तो ते होहिति सो अरोगो॥२०॥ २. मण्डव्य बालोसि परित्त पञो, यो पुञखेत्तानं अकोविदो सि । महक्कसायेसु ददासि दानं, किलिट्ठकम्मेसु असञ्जतेसु ॥२१॥ Jain Education International 2010_05 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002623
Book TitleAgam aur Tripitak Ek Anushilan Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNagrajmuni
PublisherConcept Publishing Company
Publication Year1991
Total Pages858
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Philosophy, Conduct, & Story
File Size17 MB
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