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तत्व : प्राधार : कथानुयोग] कथानुयोग- मातंम हरिकेश बल : मातंग जातक १५६ पुन गया है । उसकी निश्चेष्ट बाहें फैली हैं । उसकी आँखों कीपुतलियां मृत मनुष्य की ज्यों सफेद हो गई हैं।"
बोधिसत्त्व ने कहा-“साधुचेता ऋषि को देख अति प्रभावशील यक्ष-नगर के मधिष्ठाता देव उनके पास पाए। उन्होंने ऋषि के प्रति तुम्हारे पुत्र की दुश्चेष्टा, क्रोध एवं दुव्यवहार देखा तो क्षुब्ध होकर उन्होंने उसको इस दशा में पहुँचा दिया।"
दिट्ठ मंगलिका बोली--"यक्षों ने क्रुद्ध होकर मेरे पुत्र को आहत किया, पर, हे ब्रह्मचारि ! आप मुझ पर क्रोध न करें। भिक्षुवर ! मैं पुत्र-शोक से पीड़ित हूँ। आपकी शरण में उपस्थित हूँ।"३ ।।
बोधिसत्त्व बोले-"मेरे मन में तब भी कोई द्वेष-भाव नहीं था और न अब ही किसी प्रकार का द्वेष है । तुम्हारा पुत्र वेदों के अहंकार से प्रमत्त बन गया। उसने वेद तो पढ़े पर उनका अर्थ नहीं समझा ।"
दिट्ठ मंगलिका बोली---"भिक्षुवर ! मनुष्य की अपनी दुर्बलता है, मुहूर्त भर में उसकी बुद्धि मोह में पड़ भ्रांत हो जाती है। हे महाप्रशाशील महानुभाव ! बालक के अपराष को क्षमा कर दें। क्रोध ज्ञानी पुरुषों का बल नहीं होता।"५ अतीवष
दिट्ठ मंगलिका द्वारा अनुनय-विनय करने पर, क्षमा मांगने पर बोधिसत्त्व ने कहा"मैं इस संकट के निवारण हेतु अमृतमय औषधि बताता हूँ—यह अल्पप्रज्ञ-अल्पबुद्धि १. आवेठितं पिट्ठितो उत्तमंग, बाहं पसारेति अकम्मनेय्यं । सेतानि अक्खीनि यथा मतस्य,
को मे इमं पुत्तं अकासि एवं ॥१५॥ २. यक्खा हवे सन्ति महानुभावा,
अन्वागता इसयो साधूरूपा । ते दुट्ठचित्तं कुपितं विदित्वा,
यक्खा हि ते पुत्तं प्रकंसु एवं ॥१६॥ ३. यक्खा च मे पुत्तं अकंसु एवं,
त्वं एव मे मा कुद्धो ब्रह्मचारि । तुम्हे व पादे सरणं गतास्मि,
अन्वागता पुत्तसोकेन भिक्खु ॥१७॥ ४. तदेव हि एतरहि च मय्हं, मनोपदोसो मम नत्थि कोचि । प्रत्तो च ते वेदमदेन मत्तो, प्रत्थं न जानाति अधिच्च वेदे ।।१८॥ ५. प्रद्धा हवे भिक्खु मुहुत्तकेन,
सम्मुह्यते व पुरिसस्स सञ्जा। एकापराधं खम भूरिपञ्ज, न पंडिता कोधबला भवन्ति ॥१६॥
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