________________
तत्व : प्राचार : कथानुयोग] कथानुयोग-मातंग हरिकेश बल : मातंग जातक १५७
___ मंडव्य ने कहा-"पीटकर इसका मुंह तोड़ डालो । डंडों और लाठियों से मार-मार कर इसकी पीठ उपाड़ दो। गर्दन पकड़कर इसे पछाड़ो और पीटो। मार-मार कर इसे बाहर निकाल दो।"
द्वारपाल ज्यों ही मारने के लिए आगे बढ़े, अपने तक उनके पहुँचने से पहले ही बोधिसत्त्व आकाश में चले गए, खड़े हो गए और बोले-"जो एक ऋषि के प्रति इस प्रकार बोलता है---ऐसी भद्दी भाषा का प्रयोग करता है, वह नख से पहाड़ को खोदना चाहता है, दाँत से लोहे को काटना चाहता है और आग को निगल जाना चाहता है।
"जैसे ये कार्य करने वाले के लिए अत्यन्त कष्टप्रद होते हैं, वैसे ही ऋषि के साथ जो दुर्व्यवहार करता है, उसे कष्ट झेलना पड़ता है।"
इतना कह कर सत्य पराक्रमी मातंगरूप में विद्यमान बोधिसत्त्व मंडव्य तथा ब्राह्मणों के देखते-देखते अाकाश में ऊँचे चले गये।
वे पर्व दिशा की ओर गए। एक गली में नीचे उतरे। मन-ही-मन संकल्प किया. उनके पैरों के चिन्ह्न किसी को दिखाई न दें। वे पूर्वी द्वार के पास भिक्षा हेतु गए। उन्हें भिक्षा में कई प्रकार का मिला-जुला आहार प्राप्त हुआ। वे एक शाला में बैठे और भोजन करने लगे। यलों द्वारा वंड
नगर के अधिष्ठाता यक्षों-देवताओं ने जब यह देखा तो वे बड़े क्षुब्ध हुए । उनको यह सहन नहीं हो सका कि हमारे पूज्य पुरुष को ऐसी ओछी बात कही जा रही है, ऐसा दुर्व्यवहार किया जा रहा है । वे दानशाला में आए । मुख्य देव ने मंडव्य की गर्दन पकड़ी
और मरोड़ दी। महाकरुणाशील, कोसल चित्त के घनी बोधिसत्त्व का यह पुत्र है, ऐसा सोचकर उसे जान से नहीं मारा, सिर्फ कष्ट दिया । मंडव्य का सिर घूमकर पीठ की ओर उल्टा हो गया। आँखों की पुतलियाँ बदल गईं, मृत के सदृश हो गई । उसकी देह को मानो । काठ मार गया। वह जमीन पर गिर पड़ा। शेष देवताओं ने ब्राह्मणों की गर्दनें पकड़ी और मरोड़ डालीं। ब्राह्मणों के मुख से लार टपकने लगीं । वे इधर-उधर लोटने लगे।
लोगों ने दिट्ठ मंगलिका को सूचित किया--- "प्रायें ! आपका पुत्र खतरे में है, उसे कुछ हो गया है।" वह फौरन वहाँ आई, बेटे को देखा, बोली-"इसको क्या हुआइसका मस्तक पीट की ओर घूम गया है। इसकी निष्क्रिय बाहें फैली हुई हैं ।इसकी अांखें मृत मनुष्य की ज्यों सफेद हो गई हैं। मेरे पुत्र को किसने ऐसा कर दिया ?"
१. गिरि नखेन खणसि, अयो दन्तेन खादसि ।
जातवेदं पदहसि, यो इसि परिभाससि ।। २. इदं वक्त्वा न मातंगो, इसि सच्चपरक्कमो।
अन्तलिक्खस्मिं पक्कामि, ब्राह्मणानं उदिक्खतं ॥१०॥ ३. आवेठितं पिट्टितो उतमाङ्ग, बाहं पसारेति अकम्मनेय्यं । तेतानि क्खीनि यथा मतस्स, को मे दूथं पुत्तं अकासि एवं ॥ ११ ॥
____Jain Education International 2010_05
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org