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तत्त्व :: प्राचार : कथानुयोग] कथानुयोग' मावा हरिकेश कल : मातंग जातक १९५ धूर से कूड़े-कर्कट को ढेर से उठाए जैसे मैले-कुचले कपड़े धारण किए तुम यहाँ कहाँ से मा निकले।" बोक्सित्त्व के महुवचन
बोधिसत्व ने मंडव्य का कथन सुना। जरा भी बुरा न मान मृदुवारणी में उससे कहा-"यशस्विन् ! तुम्हारे घर यह भोजन पका है । लोग बड़ी खुशी से खा-पी रहे हैं। तुम जानते ही हो, हम भिक्षु दूसरों द्वारा प्रदत्त आहार लेकर ही जीवन चलाते हैं। उठो, इस पांडाल को भी भोजन दो।"
मंडव्य बोला--"यहाँ जो भोजन बना है, वह ब्राह्मणों को उपलक्षित कर है। उसके साथ मेरी श्रद्धा जुड़ी है। वह मेरे प्रात्मकल्याण के लिए है। दुष्ट ! तं यहाँ से दूर हट
जा। तूं यहाँ खड़ा मत रह । मुझ जैसे तुझे दान नहीं देते।" - बोधिसत्त्व ने कहा--"जो किसान उत्तम फल की प्राशा रखते हैं, वे ऊँचे स्थल में, मीचे स्थल में, जल-सिक्त स्थल में सभी स्थानों में बीज बोते हैं। इस प्रकार की श्रद्धा लिए तू भी सभी को दान दे। वैसा करते हुए संभव है, ऐसे व्यक्तियों को भी तू दान दे सके, जो वास्तव में दान के यथार्थ पात्र हैं।"
मंडव्य ने कहा- "संसार में जो दान के उपयुक्त क्षेत्र हैं, वे मुझे ज्ञात हैं। मैं वैसे क्षेत्रों में बीज-वपन करता हूं। उत्तम जाति तथा मंत्र युक्त बाह्मण ही इस संसार में दान
१. कुतो नु आगच्छसि सम्भवासि
प्रोतल्लको पंसुपिसाचको वा । संकार-चोलं पटिमुञ्च कंठे,
को रे तुवं होहिसि अदक्खिणेय्यो ॥१॥ २. अन्नं तव इदं पकतं यसास्सि, तं खञ्जरे मुजरे पिय्यरे च । जानासि तवं परदतूपजीवि,
उत्तिट्ठथ पिण्ड लभतं सपाको ॥२॥ ३. अन्नं मम इदं पकतं ब्राह्मणानं,
भत्तत्थाय सहतो मम इदं । अपेहि एत्थ किं दुघट्टितोसि, न मा दिसा तुहं ददन्ति जम्म ॥३॥ ४. थले च निन्ने च दपन्ति बीजं,
अनूफ्खेत्ते फलं पाससाना। एताय सद्धाय ददाहि दानं, अप्पेव आराषये दक्खिणेय्ये ॥४॥
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