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________________ पागम और त्रिपिटक : एक अनुशीलने खण्ड : ३ भवन का निर्माण शुरू करवाया । निर्माण चलता रहा। दिट्ठ मंगलिका के यथासमय मंत्र में ही पुत्र हुअा। मंडव्य कुमार शिशु के नामकरण का दिन पाया। ब्राह्मण एकत्र हुए। वह मंडप में उत्पन्न हुना था; इसलिए उसका नाम मंडव्य कुमार रखा गया। दस महीने में महल का निर्माण पूरा हुा । दिट्ट मंगलिका मंडप से महल में गई। बड़े धन, वैभव और ठाठ-बाट के साथ रहने लगी। मंडव्य कुमार का पालन-पोषण शाही ठाट से होने लगा। जब उसकी आयु सातपाठ वर्ष की हुई, जम्बूद्वीप के श्रेष्ठ प्राचार्यों को आमंत्रित किया। वे आए। उन्होंने उसे तीनों-ऋक् यजुष् तथा साम वेद पढ़ाए। मंडव्य कुमार सोलह वर्ष का हुआ। उसने ब्राह्मणों के लिए सुनियमित भोजन की व्यवस्था की, जिसके अन्तर्गत प्रतिदिन सोलह हजार ब्राह्मण भोजन करते । महल के चतुर्थ प्रकोष्ठ-द्वार पर ब्राह्मणों को दान दिया जाता। ब्रह्मभोज एक बार का प्रसंग है, बड़े उत्साह का दिन था। अत्यधिक मात्रा में खीर पकवाई गई। चतुर्थ प्रकोष्ठ के द्वार पर सोलह हजार काह्मण बैठे। सोने जैसे पीले घी, मधु तथा खांड से युक्त खीर खा रहे थे। मंडव्य कुमार दिव्य आभूषणों से विभूषित था। उसने अपने पैरों में स्वर्ण की खड़ाऊँ पहन रखी थी। उसके हाथ में एक सोने का इंडा था। वह भोजन करते हुए ब्राह्मणों के मध्य घूमता था । जहाँ अपेक्षित देखता, 'उन्हें मधु दो, उन्हें घृत दो' इत्यादि कहता जाता। इस प्रकार बहुत शानदार ब्रह्मभोज चल रहा था। मातंग पंडित मातंग पंडित तब हिमालय पर स्थित अपने पाश्रम में बैठा था। उसने अपनी विशिष्ट ऋद्धि-सूत दृष्टि से दिट्ठ मंगलिका के पुत्र का हाल देखा । उसे प्रतीत हुमा, वह गलत रास्ते पर जा रहा है। उसने विचार किया, मुझे चाहिए, मैं आज ही वहाँ पहुँबूं। बालक. को अनुचित मार्ग से दूर करू। जिनको दान देने में वास्तव में परम फल प्राप्त होता है, उन्हें दान दिलवाऊँ। यह सोचकर वह माकाश-मार्ग से अनुतप्त सरोवर पर पहुँचा । मुंह धोया, हाथ-पैर धोए, मनः शिला पर खड़ा हुआ। लाल वस्त्र पहना, काय बत्धन तथा पासुकूल संघाटी धारण की.। मृद-पात्र हाथ में लिया। फिर आकाशमार्ग से चल कर वाराणसी में स्थित. विट्ठ मंगलिका के प्रसाद के चौथे प्रकोष्ठ पर विद्यमान दान-शाला में उतरा । एक पोर खड़ा हो गया। मंडव्य दानशाला में इधर-उधर घूम ही रहा था। उसकी नजर मातंग पंडित पर पड़ी। उसने सोचा-बड़ा कुरूप, प्रेत जैसा दिखाई देने वाला यह भिक्षु कहाँ से पा गया, जरा पूछ । मिनु का अपमान "परे ! चिषड़ों से डके, मंदे बहन पहने, पिशाच जैसे धूल-धूसरित तुम.कौन हो? Jain Education International 2010_05 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org |
SR No.002623
Book TitleAgam aur Tripitak Ek Anushilan Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNagrajmuni
PublisherConcept Publishing Company
Publication Year1991
Total Pages858
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Philosophy, Conduct, & Story
File Size17 MB
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