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________________ तत्त्व : आचार : कथानुयोग ] कथानुयोग - मातंग हरिकेश बल : मातंग जातक १५३ चन्द्रमा का प्रस्फुटन कर वह नीचे उतरने लगा। वाराणसी के ऊपर तीन चक्कर काटे । लोगों ने • यह सब देखा । दिट्ठ मंगलिका ने जैसा घोषित किया था, वैसा ही हुआ है, यह जानकर लोग बड़े प्रभावित हुए। जनता ने सुगन्धित पदार्थों, पुष्प मालाओं आदि द्वारा उसकी पूजा की । वह आकाश मार्ग से चांडाल बस्ती की ओर गया । दिट्ठ मंगलिका के गर्भ महाब्रह्मा के भक्त एकत्र हुए। चांडाल बस्ती पहुँचे। उन्होंने दिट्ठ मंगलिका के घर को स्वच्छ, निर्मल वस्त्रों से छा दिया । भूमि को सुगन्धित द्रव्यों से लीपा । उस पर पुष्प विकीर्ण किए। धूप और लोबान की धूनी दी । वस्त्रों से बनी चाँदनी तानी । आसन, आस्तरण आदि बिछा दिए । सुगन्धित तेल के दीपक जलाए । द्वार पर चाँदी जैसी उज्ज्वल बालू बिखेरी, पुष्प बिखेरे, पताकाएँ बाँधी । यों दिट्ठ मंगलिका के घर को बहुत सुन्दर रूप में सजाया, अलंकृत किया । बोधिसत्त्व वहाँ उतरे, भीतर गए, कुछ देर शय्या पर बैठे । दिट्ठ मंगलिका तत्र ऋतुस्नाता थीं । बोधिसत्त्व ने अपने अंगूठे से उसकी नाभि का संस्पर्श किया, जिससे उसकी कुक्षि में गर्भ संप्रतिष्ठ हो गया । बोधिसत्त्व ने उससे कहा- “भद्रे ! तुम गर्भवती हो गई हो। तुम्हारे पुत्र उत्पन्न होगा। तुम और तुम्हारा पुत्र उत्तम सौभाग्य एवं कीर्ति प्राप्त करेंगे। तुम्हारे चरणों का उदक समग्र जम्बू द्वीप के नरेशों के लिए अभिषेक - जल होगा । तुम्हारे स्नान का जल प्रमृतमय औषध का रूप लेगा । जो उसे अपने मस्तक पर छिड़केंगे, वे रोग-रहित स्वस्थ हो जाएँगे । मनहूस प्राणियों की कुदृष्टि से बचेंगे । तेरे पैरों में मस्तक रख कर जो नमन करेंगे, वे एक सहस्र देकर वैसा करेंगे । जहाँ तक शब्द सुनाई दे सकें, उस सीमा के भीतर खड़े होकर जो तुमको नमन करेंगे, वे एक शत देकर करेंगे । जहाँ तक दिखाई दे सके, उस सीमा के भीतर खड़े होकर जो नमन करेंगे, वे एक काषार्पण देंगे। तुम सदा प्रमाद-शून्य होकर रहना ।" बोधिसत्त्वदिट्ठ मंगलिका को उपदेश देकर घर से देखते आकाश में ऊपर उठते गए तथा चन्द्रमा के मंडल में भक्तों ने, जो एकत्र थे, वहीं खड़े-खड़े रात्रि व्यतीत की । मंगलिका को स्वर्ण की पालकी में बिठाया, अपने सिर पर लोगों ने ऐसा समझकर कि यह महाब्रह्मा की पत्नी है, सुगन्धित पदार्थों, पुष्प मालाओं आदि बाहर आए। लोगों के देखतेप्रवेश कर गए। महाब्रह्मा के प्रातः काल हुआ। उन्होंने दिट्ठ रखा और नगर में ले गए। से उसकी पूजा की। जिनको उसके चरणों में मिलता वे सहस्र देते । जो शब्द सुने जा सकने की वे शत देते, उसके दर्शन हो सकने की सीमा के कारण देते । स्वर्ग की पालकी में बैठी दिट्ठ मंगलिका को महाब्रह्मा के भक्त बारह योजन विस्तीर्ण वाराणसी में लिए घूमे । उपहार के रूप में अठारह करोड़ द्रव्य प्राप्त हुआ । मस्तक रखकर प्रणाम करने का अवसर सीमा के भीतर खड़े होकर प्रणाम करते, भीतर खड़े होकर प्रणाम करने पर एक पुत्र - प्रसव तदनन्तर नगर के मध्य उन्होंने एक विशाल मंडप बनवाया। उसके चारों ओर कनात तनवा दी। बड़ी शान और ठाट-बाट के साथ दिट्ठ मंगलिका को वहाँ ठहराया। मंडप के समीप ही दिट्ठ मंगलिका के लिए सात द्वारों, सात प्रकोष्ठों तथा सात तलों के विशाल Jain Education International 2010_05 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002623
Book TitleAgam aur Tripitak Ek Anushilan Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNagrajmuni
PublisherConcept Publishing Company
Publication Year1991
Total Pages858
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Philosophy, Conduct, & Story
File Size17 MB
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