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आगम और त्रिपिटक : एक अनुशीलन
[खण्ड : ३
मातंग द्वारा प्राज्या
मातंग बोला- "भद्रे ! तेरे आदमियों ने मुझे बहुत मारा-पीटा है । मैं क्षीण और परिश्रान्त हूँ, चल नहीं सकता। मुझे उठायो, अपनी पीठ पर चढ़ाप्रो और घर ले चलो।" दिट्ठ मंगलिका ने उसकी आज्ञा शिरोधार्य की। उसे अपनी पीठ पर बिठाया और नगर से निकली। नगरवासी देखते ही रह गए । वह मातंग को अपनी पीठ पर लिए चांडाल बस्ती में चली गई। मातंग ने जाति-भेद की मर्यादा का पालन करते हुए, पूरा ध्यान में रखते हुए उसे अपने घर में रखा। उसने सोचा-प्रव्रज्या ग्रहण कर लूं, तभी श्रेष्ठि-कन्या को उत्तम लाभ एवं कीर्ति प्राप्त करा सकता हूँ। इसके अतिरिक्त कोई अन्य उपाय मुझे दृष्टिगोचर नहीं होता । उसने दिट्र मंगलिका को अपने पास बुलाया और कहा--"भद्रे! जीविका हेतु वन में जाना होगा । जब तक मैं न आऊँ, तब तक तुम घबराना नहीं।" उसने घर वालों को भी समझा दिया और कह दिया कि वे दिट्ट मंगलिका का पूरा ध्यान रखें । वह वन में चला गया। उसने वहाँ श्रमण-प्रवज्या स्वीकार की। अप्रमादपूर्वक साधना-निरत रहा। छः दिन व्यतीत हो गए । सातवें दिन उसे आठ समापत्तियाँ तथा पाँच अभिज्ञाएँ प्राप्त हो गई। उसने मन-ही-मन कहा-अब मैं दिट्ठ मंगलिका के लिए कुछ उपयोगी बन सकूँगा। वह अपने ऋद्धि-बल के सहारे आकाश-मार्ग से चला। चांडालों की बस्ती के दरवाजे पर नीचे उतरा। दिट्ठ मंगलिका के घर के द्वार पर गया । दिट्ठ मंगलिका को जब यह ज्ञात हुआ कि मातंग आ गया है, तो वह घर से झट बाहर निकल कर आई और रोती हुई उससे कहने लगी"स्वामि ! मुझे अनाथ बनाकर आपने प्रव्रज्या ग्रहण कर ली ?"
___ मातंग बोला--"भद्रे ! तुम चिन्ता मत करो। अपने पिता के यहाँ जितनी संपत्ति तुम्हारे पास थी, उससे भी कहीं अधिक संपत्तिशालिनी तुम्हें बना दूंगा, पर, जन-परिषद् के समक्ष तुम्हें इतना-सा कहना होगा कि मातंग मेरा स्वामी नहीं है। मेरा स्वामी महाब्रह्मा है । क्या तुम ऐसा कह सकोगी ?"
दिट्ठ मंगलिका बोली-"स्वामिन् ! जैसी आपकी आज्ञा । मैं यह कह सकूँगी।"
तब मातंग ने पुनः उससे कहा--"यदि कोई पूछे, तुम्हारे स्वामी कहाँ गए हैं ? तो तुम उत्तर देना-वे ब्रह्मलोक गए हैं। आगे पूछे कि वे कब आएँगे तो उन्हें बतलानाआज से सातवें दिन पूर्णिमा है। वे पूर्णिमा के चन्द्र को तोड़कर उसमें से निकलेंगे।" दिट्ठ मंगलिका को यों समझाकर वह आकाश-मार्ग द्वारा हिमालय की ओर चला गया। वाराणसी में दिट्ठ मंगलिका ने लोगों के बीच जहाँ-जहाँ प्रसंग आया, उसी प्रकार कहा, जिस प्रकार मातंग ने उसे समझाया था। एक विचित्र तथा अनहोनी जैसी बात थी, वाराणसी में शीघ्र ही अत्यधिक प्रचारित हो गई।
लोगों को विश्वास हो गया कि जैसा दिट्ट मंगलिका कहती है, उसका स्वामी महाब्रह्मा है । इसलिए वह दिट्ठ मंगलिका के यहाँ नहीं जाता, वह विशिष्ट प्रभावापन्न है। महाब्रह्मा का अवतरण
पूर्णिमा का दिन आया । चन्द्रमा आकाश में अपने गतिक्रम से चल रहा था । जब वह अपने गमन-पथ के बीच में था, बोधिसत्त्व ने ब्रह्मा का रूप धारण किया । समग्र काशी राष्ट्र को तथा बारह-योजन-विस्तीर्ण वाराणसी को एक-सदृश प्रकाश से पालोकित कर,
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