SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 211
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ तत्व : प्राचार : कथानुयोग] कथानुयोग-मातंग हरिकेश बल : मातंग जातक १५१ द्धि मंगलिका पिण्डोल भारद्वाज के प्रार्थना करने पर तथागत ने पूर्व-जन्म की कथा इस प्रकार कही: प्राचीन समय की बात है, वाराणसी में राजा ब्रह्मदत्त राज्य करता था। तब बोधिसत्व ने नगर के बाहर चाण्डाल जाति में जन्म लिया। बालक का नाम मातंग रखा गया। जब वह बड़ा हुआ तो वह मातंग पंडित के नाम से विख्यात हुआ। . उस समय वाराणसी में एक बड़ा सेठ था। उसकी पुत्री दिट्ट मंगलिका थी । वह शकुनों में विश्वास करती थी। एक-दो महीनों के अन्तर से वह विशाल मंडली के साथ उद्यान में कीड़ा-विनोद हेतु जाती । एक दिन का प्रसंग है, मातंग पंडित किसी कार्य-वश नगर में जा रहा था । वह नगर के दरवाजे में प्रविष्ट हुआ । दिट्ठ मंगलिका दिखाई दी। वह हटकर एक ओर खड़ा हो गया। दिट्ठ मंगलिका ने कनात में से देख लिया था। उसने पूछा-"यह कौन है ?" लोगों ने कहा-"प्रायें ! यह चाण्डाल है।" वितु मंगलिका द्वारा क्षोभ दिट्ट मंगलिका क्षुब्ध हो गई। उसके मुंह से निकला-कितना बुरा हुआ, प्रदर्शनीयन देखने योग्य दिखाई दे जाते हैं। उसने चांडाल को देख लेना नेत्रों के लिए अशुचिकर माना; अत: सुगन्धित जल से नेत्र प्रक्षालित किए। उद्यान-क्रीड़ा हेतु नहीं गई, वापस लौट पड़ी। उसके साथ जो लोग चल रहे थे, क्रोध से जल गए। वे कहने लगे-"बड़ा दुष्ट चांडाला है। हमें जो मुफ्त की मदिरा मिलती, स्वादिष्ट भोजन मिलता, वह आज इसके कारण जाता रहा।" उन्होंने मातंग पंडित को चूंसों और लातों से बुरी तरह पीटा। मातंग बेहोश हो गया। वे चले गए। कुछ देर बाद जब मातंग को होश आया तो वह मन-ही-मन कहने लगा-मैं निर्दोष था, मैंने कोई अपराध नहीं किया था, फिर भी दिट्ठ मंगलिका के मादमियों ने मुझे पीटा। मुझे इसका प्रतिकार करना चाहिए । इसका प्रतिकार यही है, मैं दिट्ट मंगलिका को अपने साथ लेकर जाऊँ । उसके घर वालों को बाध्य कर दूं कि उन्हें दिट्ट मंगलिका मुझे देनी ही पड़ । ऐसा निश्चय कर वह सेठ के भवन-द्वार पर जाकर पड़ गया। सेठ ने पूछा- “यहाँ क्यों पड़े हो ?" मातंग का प्राग्रह : विट मंगलिका की प्राप्ति मातंग ने उत्तर दिया-"मेरे यहाँ पड़े रहने का एक ही कारण है, मैं दिट्ठ मंगलिका लेना चाहता हूँ।" सहसा सेठ की समझ में नहीं पाया। पहला दिन व्यतीत हो गया। दूसरा दिन वीता, क्रमश: तीसरा, चौथा, पांचवा तथा छठा दिन व्यतीत हो गया। बोधिसत्वों के संकल्प कभी अपूर्ण नहीं रहते । सातवां दिन प्राया । सेठ घबरा गया । वह भय से काँप गया, चांडाल कहीं मर न जाए। चांडाल दिटु मंगलिका को लिए बिना.मानता ही नहीं पा । सेठ को और कोई उपाय नहीं सूझा । वह दिट्ठ मंगलिका को साथ लेकर बाहर च्या और उसे मातंग को सौप दिया। दिट्ट मंगलिका उसके पास भाई और कहने लगी"स्वामिन् ! उठिए, घर चलिए।" Jain Education International 2010_05 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002623
Book TitleAgam aur Tripitak Ek Anushilan Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNagrajmuni
PublisherConcept Publishing Company
Publication Year1991
Total Pages858
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Philosophy, Conduct, & Story
File Size17 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy