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तत्त्व : आचार : कथानुयोग] कथानुयोग- मातंग हरिकेश बल : मातंग जातक १४५
तत्पश्चात् राजा अपनी पुत्री को विविध प्रकार के आभूषणों से सुसज्जित कर विवाहयोग्य बहुमूल्य साधन-सामग्री को साथ लिए उस वन में हरिकेश बल मुनि की सेवा में उपस्थित हुआ। मुनि के चरणों में वन्दन-नमन किया, हाथ जोड़कर प्रार्थना की- "मुनिवर! आप इस कन्या का पाणिग्रहण कीजिये, अपने तपःपूत करों के संस्पर्श द्वारा इसके कोमल करों को पावन कीजिये। राजकन्या ने भी अपने पिता की अभ्यर्थना का अत्यन्त विनय-पूर्वक समर्थन किया। यह देख यक्ष ने मुनि के शरीर को आच्छादित कर उसके समान भिन्न रूप को विर्षावणा कर राजकुमारी का पाणिग्रहण किया। एक रात अपने साथ रखा । दूसरे दिन प्रातःकाल यक्ष दूर हो गया। राजकुमारी तो यह समझे हुई थी, मुनि के साथ ही उसका पाणिग्रहण हुआ है । वह मुनि के समक्ष पत्नी-माव से उपस्थित हुई। इस पर मुनि ने कहा--- "मैं मुनि हैं, सांसारिक भोग-वासनामय जीवन से सर्वथा निवृत्त हूँ, संयमशील साधक हैं; मैं तो मन वचन तथा शरीर से स्त्री का स्पर्श तक नहीं कर सकता, न वैसा करने की प्रेरणा ही दे सकता हूँ और न अनुमोदन ही कर सकता हूँ। कल्याणि ! तू मुझ से दूर रह । तुम्हारे साथ जो घटित हुआ है, उसका मुझसे कोई सम्बन्ध नहीं है। यह सब इस यक्ष की ही करतूत है।"
मुनि का यह कथन सुनकर राजकुमारी बहुत खिन्न हुई, वह वापस राजमहल में लौटी। अपने पिता को सारी स्थिति से अवगत कराया। राजा ने अपने पुरोहित रुद्रदेव से परामर्श किया। विचार-विमर्श के प्रसंग में पुरोहित रुद्रदेव ने कहा कि यह कन्या ऋषि हेतु संकल्पित, समर्पित होने के कारण ऋषि-पत्नी है, जो ऋषि द्वारा परित्यक्त है। अब यह किसी ब्राह्मण को दे दी जानी चाहिए। क्योंकि ऋषि-भोग्य ब्राह्मण-भोग्य ही होता है। राजा को पुरोहित का सुझाव उचित प्रतीत हुआ। उसने अपनी कन्या पुरोहित रुद्रदेव को समर्पित कर दी। रुद्रदेव राजकन्या के साथ कुछ समय तक सांसारिक सुखों का उपभोग करता रहा । उसने एक दिन राजा से निवेदन किया कि मैं आपकी पुत्री को ऋषि-पत्नी के स्थान पर यज्ञ-पत्नी बनाना चाहता हूँ। तदर्थे मैं एक विशाल यज्ञ आयोजित करना चाहता हूं। राजा ने स्वीकृति प्रदान की। तदनुसार पुरोहित रुद्र देव ने यज्ञ का आयोजन किया। यज्ञ में अनेक ब्राह्मण विद्वानों को आमन्त्रित किया। यज्ञ में भाग लेने हेतु समागत विद्वानों के लिए विभिन्न प्रकार भोज्य-पदार्थ तैयार करवाये गये।
मुनि का भिक्षार्थ यश-शाला में गमन : ब्राह्मणों द्वारा तिरस्कार
महर्षि हरिकेशबल एक मास के तप के पारणे हेतु भिक्षार्थ यज्ञशाला में उपस्थित हुए। तप के कारण मुनि का शरीर शुष्क जैसा था। उनके उपकरण-वस्त्र-पात्र आदि मैले-कुचले तथा जीर्ण थे। उन्हें देखकर वे ब्राह्मण अनार्य की ज्यों उनका उपहास करने लगे। वे जाति के मद से गवित थे, हिंसा-रत, अजितेन्द्रिय, अब्रह्मचारी तथा अविवेकी थे । वे मुनि को उद्दिष्ट कर इस प्रकार कहने लगे-"जिसे देखते ही घृणा उत्पन्न होती है, जो वर्ण से काला-कलूटा है, जिसकी नाक चिपटी है, जो पिशाच की ज्यों विकराल जैसा है, जो गले में अत्यन्त मैले-कुचले और जीर्ण-शीर्ण वस्त्र लटकाये है, वैसा यह कौन आ
रहा है?"
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