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________________ १४४ आगम और त्रिपिटक : एक अनुशीलन ] खण्ड : ३ रहने लगा। इसी साधना-क्रम के बीच एक बार वह पर्यटन करता हुआ वाराणसी नगर में आया । वहाँ तिन्दुक वन में स्थित मंडिक नामक यक्ष के चैत्य में वह टिका । उसने वहाँ एकमासिक तप करना प्रारंभ किया। मंडिक यक्ष हरिकेशबल मुनि के तप आदि गुणों से बहुत प्रभावित हुआ। वह अनवरत मुनि की सेवा करने में संलग्न हुआ। मंडिक यक्ष एक बार तिन्दुक वन में मंडिक यक्ष के यहाँ एक उसका मित्र अन्य यक्ष अतिथि के रूप में आया। उस आगत यक्ष ने कुशल-क्षेम के पश्चात् मंडिक यक्ष से कहा- "क्या बात है, आजकल तो मेरे यहाँ कभी आते ही नहीं ?" मंडिक यक्ष ने उत्तर दिया- 'मैं आजकल इन महामुनि की सेवा में निरत रहता हूँ। इनके उत्तम गुणों से मैं इतना आकृष्ट हूँ कि कहीं अन्यत्र जाने का मन ही नहीं होता।" यह सुनकर मंडिक यक्ष का मित्र भी मुनि हरिकेशबल के गुणों से अत्यधिक प्रभावित हुआ और मंडिक के साथ वह भी मुनि की सेवा करने लगा। एक दिन दोनों यक्ष मित्र परस्पर वार्तालाप कर रहे थे। आगत यक्ष ने मंडिक से कहा कि उसके वन में भी एक ऐसे ही मुनि विराजित हैं। अच्छा हो, हम दोनों उनके भी दर्शन करें, यथासाध्य सेवा करें । वे दोनों निर्दिष्ट स्थान पर गये। वहाँ मुनि को देखा। मुनि प्रमादी थे। निरर्थक, निरुपयोगी बातों में समय लगाते थे। आचार तथा संयम के प्रति जब उन्होंने उन का उपेक्षा-भाव देखा तो उनका मन वहाँ से हट गया। वे वापस आ गये तथा फिर अत्यन्त भक्ति एवं श्रद्धापूर्वक मुनि हरिकेश बल की सेवा में पूर्ववत् संलग्न हो गये। एक दिन की बात है, वाराणसी के राजा कौशालिक की पुत्री राजकुमारी भद्रा पूजा की सामग्री, उपकरण लिए अपने सेवक सेविकाओं के साथ वहाँ आई। यक्ष की मूर्ति की यथाविधि पूजा की। तत्पश्चात् जब वह प्रदक्षिणा कर रही थी, तो उसकी दृष्टि हरिकेश बल मुनि पर पड़ी, जो वहाँ स्थित थे। मुनि हरिकेशबल घोर तपस्दी थे, अन्तर्मुखीन थे। बाह्यशौचाचार, स्वच्छता आदि पर उनका कोई ध्यान नहीं था। उनके वस्त्र मैले-कुचैले तथा गीले थे। दैहिक-दृष्टि से वे कुरूप थे ही, शरीर भी मैला-कुचैला था। राजकुमारी ने घृणा से उन पर थूक दिया। मंडिक यक्ष राजकुमारी द्वारा किये गये मुनि हरिकेशबल के इस अपमान को नहीं सह सका। राजकन्या की अक्ल ठिकाने लाने के लिए उसने उसे दश दासियों सहित उठाकर राजमहल में फेंक दिया। यक्ष के अभिघात से राजकुमारी अपना होश-हवास गंवा बैठी, उन्मत्त-जैसी हो गई। राजकुमारी की यह दशा देखकर राजमहल में सर्वत्र चिन्ता एवं शोक व्याप्त हो गया। राजा ने अपने मंत्रियों के माध्यम से नगर के सुयोग्य, अनुभव-निष्णात चिकित्सकों को बुलवाया, राजकुमारी की अनेक प्रकार से चिकित्सा कराई, किन्तु, उसकी दशा में कोई अन्तर नहीं आया । वह स्वस्थ नहीं हो सकी। तब यक्ष ने राजकुमारी के मुख में आविष्ट होकर कहा-"राजकन्या ने मेरे चैत्य में विराजित एक महान् संयमी, महान् तपस्वी संत का अत्यधिक तिरस्कार किया है। उससे मेरे मन में बड़ा आक्रोश उत्पन्न हुआ। मैंने ही इसकी यह दशा की है। अब इस कन्या के स्वस्थ होने का एक ही उपाय हैं, इसका उस महामुनि के साथ विवाह किया जाना स्वीकार किया जाये।" राजा ने यक्ष का कथन स्वीकार कर लिया। यक्ष ने उस कन्या को अपने आवेश से मुक्त कर दिया। वह पूर्ववत् स्वस्थ हो गई। Jain Education International 2010_05 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002623
Book TitleAgam aur Tripitak Ek Anushilan Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNagrajmuni
PublisherConcept Publishing Company
Publication Year1991
Total Pages858
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Philosophy, Conduct, & Story
File Size17 MB
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